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तु शब्द आकोशोत्पत्ति के सम्मन्ध में की गई शंका का निवारक है । जितनी भी विकृत वस्तुएँ हैं सबकी अलग-अलग उत्पत्ति हुई है, आकाश भी विकृत है, यह भी लौकिक व्यवहार का विषय है यह लोक में विकृत मात्र उत्पन्न है।
आकाशोत्पत्तौ श्रुत्या सिद्धायाम्, "आकाशवत् सर्वमतश्च नित्यः, आकाश शरीरं ब्रह्म" स यथाऽनंतोऽयमाकाशः एवमनन्तात्मा वेदितव्यः आकाशआत्मा "इत्यादि श्रुतयः" समोऽनेन सर्वेण “य आकाशे तिष्ठन् सर्वमात्मा" इत्यादिभिरेक वाक्यतां लम्भते । व्यवहारे त्वज्ञ बोधनं वाक्यानामुपयोगः।
आकाशोत्पत्ति तो श्रुति से ही सिद्ध है श्रुति में प्रयोग आता है कि "ब्रह्म आकाश की तरह सर्वगत और नित्य है" ब्रह्म आकाश की तरह व्यापक शरीर वाला है" वह ऐसा ही अनन्त है जैसा कि आकाश “ऐसे ही परमात्मा को अनंत जानना चाहिए" आत्मा आकाश की तरह अनन्त है "इत्यादि श्रुतियों और" इसी के समान सब हैं जो कि आकाश में स्थिति सबका आत्मा है" इत्यादि श्रुतियों में एक वाक्यता है । इन श्रुतियों में स्पष्टतः आकाश को ब्रह्म से पृथक् लौकिक विकृत पदार्थ कहा गया है और उसकी व्यापकता अनन्तता आदि विशेषताओं से परमात्मा का सादृश्य बतलाया गया है। व्यवहार में वाक्यों का उपयोग मूढ़ व्यक्तियों के लिए ही करना पड़ता है।
एतेन मातरिश्वा व्याख्यातः॥२॥३८॥
• आकाशोत्पत्ति समर्थनेन मातरिश्वोत्पत्ति समर्थिता । सैषाऽनस्तमिता देवतेति भौतिक वायु व्यावृत्यर्थमलौकिकपदम् । ___ आकाशोत्पत्ति के समर्थन से मातरिश्वा की उत्पत्ति का भी समर्थन हो जाता है। ये अनस्तमित देवता हैं, भौतिक वायु नहीं है इस बात को सूचित करने के लिए ही अलौकिक मातरिश्वा पद का प्रयोग किया है। असम्भवस्तु सतोऽनुपपत्तः ।।६
ननु ब्रह्मणोऽप्युत्पत्तिः स्यात् । “अकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः" इति श्रुतेराकाश न्यायेन सर्वगतत्वनित्यत्वयोरभावे इतीमामाशंकां तुशब्दः परिहरति । सतः सन्मात्रस्योत्पत्तिर्न संभवति । नहि कुंऽलोत्पत्ती कनकोत्पत्ति रुच्येनाम रूपविशेषाभावात् । उत्पत्तिश्च स्वीक्रियमाणा नोपपद्यते, स्वतो न संभवति । अन्यत स्त्वनवस्था । यदेव च मूलं तदेव ब्रह्मेति ।