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इत्येवं प्राप्ते इदमाह- इस मत पर सूत्र प्रस्तुत करते हैं। प्रतिज्ञा हानिरव्यतिरेकाच्छब्देभ्यः ।२॥३॥६॥
भवेदेतदेवं यदि छांदोग्य श्रुतिर्न विरुद्धयेत कथम् ? एक विज्ञानेन सर्व विज्ञान प्रतिज्ञा बाध्यते । अव्यातिरेकात् । अनुद्गमात् । यदि संबद्धमेव ब्रह्मणा आकाशं तिष्ठेत् तदा ब्रह्म विज्ञानेन आकाश विषयीकरणे तन्नैक विज्ञानम् । आकाशस्य चालौकिकत्वात् तज्ज्ञानं सर्वज्ञता यामपेक्षितमेव न च जीववत्, लौकिकत्वात् । व्यवहार मात्रविषयत्वान्नातीन्द्रियत्वादि चिन्ता। अनुद्गमेऽपि वस्तु सामर्थ्यात् कथं प्रतिज्ञा हीयते इत्यत आह-शब्देभ्यः “येना श्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतं भवत्य विज्ञातं-विज्ञातं भवति" इति शब्दात् प्रकृति विकार भावेनैव म्युत्पादयति ज्ञानं । शब्देभ्यो हेतुभ्यः प्रतिज्ञा हानिरितियोजना । ___ यदि छांदोग्य श्रुति बाधा न डालती तो जो आपने कहा वह हो सकता था। छांदोग्य श्रुति के अनुसार एक विज्ञान से सर्व विज्ञान वाली प्रतिज्ञा वाधा उत्पन्न करती है । यदि स्वरूप सम्बन्ध से अविभक्त रूप ही ब्रह्म आकाश में स्थित है तो ब्रह्म विज्ञान से आकाश का ही बोध होगा, एक मात्र ब्रह्म के ज्ञान की बात तो सधेगी नहीं । क्योंकि आकाश अलौकिक विभु पदार्थ है, इसलिए उसका ज्ञान सर्वज्ञता में अपेक्षित हो जायेगा । वह जीव की तरह अणु और लौकिक तो है नहीं । जीव तो व्यवहार में आने वाला तत्त्व है इसलिए उसमें अतीन्द्रिवत्य आदि चिन्ता नहीं होती, उसमें तो एक विज्ञान वाली प्रतिज्ञा लागू करके परमात्मा की सत्ता का अनुमान सहज रूप से किया जा सकता है, आकाश की गौण उत्पत्ति मान लेंगे तो वही ब्रह्म रूप हो जायेगा अतः उसमें प्रतिज्ञा क्या काम देगी? यदि कहो कि उसकी सृष्टि न मानें तो भी आकाश शब्द तो है ही उसी से ब्रह्म और आकाश की पृथक्ता सिद्ध होती है फिर तो प्रतिज्ञा लागू हो जायेगी। इसका उत्तर श्रुतिशब्दों से ही मिल जाता है जिसके ज्ञान से अश्रुत वस्तु श्रुत, अमान्य वस्तु मान्य और अज्ञात वस्तु ज्ञात हो जाती है" इसमें प्रकृति विकार भाव से ही ज्ञानोत्पादन की बात कही गई है । जब तक आकाश की मुख्या सृष्टि नहीं मानेंगे तब तक वह प्राकृत विकृत पदार्थ नहीं होगा और न उसमें प्रतिज्ञा ही लागू होगी। यावद विकारन्तु विभागो लोकवत् ॥२॥३७॥
तु शब्द आकाशोत्पत्य संभावन शंकांवारयति.यद्यद् विकृतं तस्य सर्वस्य विभाग उत्पत्तिः । आकाशमपि विकृतम् । लौकिक ब्यवहार विषयत्वात् । यथा लोके विकृत मात्रमुत्पद्यते।