________________
२५६
. अब संशय होता है कि आकाश की उत्पत्ति होती है या नहीं ? क्या माना जाय ? श्रुति मानने वाले तो श्रुति से ही निर्णय करते हैं, श्रुति में जो छांदोग्य का मुख्य सृष्टि क्रम है उसमें तो इसका उल्लेख है नहीं इसलिए आकाश की उत्पत्ति नहीं होती यही मानना ठीक है।
अस्तितु ।२।३॥२॥
तुशब्दः पक्षव्यावर्त यति । तैत्तरीयके वियदुत्पत्तिरस्ति, यद्यपि मुख्ये नास्ति तथापि विरोधाभावादन्यत्रोक्तमप्यंगी कर्त्तव्यमेकवाक्यत्वाय । एक विज्ञानेन
सर्व विज्ञान प्रतिज्ञानुरोधाच्च । _तु शब्द पूर्व पक्ष का निरास करता है। कहते हैं कि तैत्तरीयक में तो आकाश की उत्पत्ति का उल्लेख है ही, यद्यपि मुख्य ऋचा में नहीं है, पर विरोध भी तो नहीं है, इसलिए अन्यत्र कही हुई बात को मानना चाहिए। तभी दोनों की एक वाक्यता संगत होगी। एक के ज्ञान से समस्त का ज्ञान हो जाता है, इस प्रतिज्ञा से भी उक्त बात मान्य है। गौण्यसंभवात् ।।३।३॥
वियदुत्पत्तिौणी भविष्यति, कुतः ? असंभवात् । न हि आकाशोत्पत्ति: संभवति, निरवयवत्वात् । व्यापकत्वाच्च मुख्ये चाभावात् । एक विज्ञानेन सर्व विज्ञान प्रतिज्ञातु तदधिष्ठानत्वेन जीववत् तदंशत्वेन वा तच्छरीरत्वेन वा एक विज्ञान कोटि निवेशात् । लोकेऽप्यवकाशं कुर्वीत् इत्यादौ गौण प्रयोगदर्शनात्
आकाश की उत्पत्ति गौणी होती है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति संभव नहीं है, उसके कोई अवयव तो हैं नहीं, वह तो ब्यापक वस्तु है, फिर मुख्य वाक्य में उसका उल्लेख भी नहीं है। एक विज्ञान से सर्व विज्ञान का जो नियम है वह तो परमात्मा के अधिष्ठानत्व में लागू होता है, जीव जैसे परमात्मा का अंश है, या उसका शरीर स्थानीय है, इस बात का द्योतक है । लोक में भी "अवकाश करो" ऐसा गौण प्रयोग ही होता है, वस्तुतः अवकाश तो व्यापक है, उसकी उत्पत्ति की बात तो केवल कहने भर की है। शब्दाच्च ।२।३।४॥
"वायुश्चान्तरिक्षं च एतदमृतम्" इति, आकाशवत् सर्वगतश्च नित्य इति । न हि अमृतस्य ब्रह्म दृष्टान्त भूतस्योत्पत्तिः संभवति ।