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म चकर्त्तः करणम् | २|२|४३ ॥
: संकर्षण संज्ञात् जीवात् प्रद्युम्न संज्ञकं मन उत्पद्यते इति । तल्लोके न सिद्धम् ; नहि कुलालाद् दण्ड उत्पद्यत इति चकारादग्रिमस्य निराकरणम् ।
कर्त्ता संकर्षण नामवाले जीव से प्रद्युम्न नामवाले मन की उत्पत्ति कहते हैं, ये बात लौकिक दृष्टि से भी ठीक नहीं है, कहीं भी कुलाल से दण्ड की उत्पत्ति नहीं देखी जाती, यही बात अनिरुद्ध नामक अहंकार की उत्पत्ति में भी है ।
विज्ञानादि भावे वा तदप्रतिषेधः | २|२| ४४ ॥
अथ सर्वे परमेश्वरा विज्ञानादिमन्त इति, तथा सति तदप्रतिषेधः । ईश्वराणामप्रतिषेधः । अनेकेश्वर त्वं च न युक्तमित्यर्थः, वस्तुतस्तु स्वातंव्यमेव दोषः ।
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सारे ही ईश्वर विज्ञानादि मान अर्थात् छः ऐश्वर्यों से संपन्न हैं ये तो नियम विरुद्ध बात है, अनेक ईश्वरों की बात कहना असंगत है, वस्तुतः सबको स्वतंत्र मानना ही दोष है ।
विप्रतिषेधाच्च |२| २४५॥
बहु कल्पनया वेदनिन्दया च विप्रतिषेधः चकाराद् वेद प्रक्रिया विरोध: । अनेक ईश्वरों की कल्पना करना एक प्रकार का वेद की निन्दा या वेद का प्रतिषेध ही है, यह बात वेद प्रक्रिया के भी विरुद्ध है ।
द्वितीय अध्याय
तृतीयपाद
न वियदश्रुतेः | २|३|१॥
श्रुतिवाक्येषु परस्पर विरोधः परिह्रियते विप्रतिषेध परिहाराय । मीमांसायास्तदर्थं प्रवृत्तत्वात् । शत्त्य विरोधाभ्याम् । तथा च ब्रह्म वादे जडजीवयो विरुद्धांश निराकरणाय तृतीय पादारम्भः ।
विप्रतिषेध के परिहार के लिए, श्रुतिवाक्यों में दृष्ट पारस्परिक विरोध का परिहार किया गया । मीमांसा की दृष्टि से ऐसा किया गया, शक्ति की और अविरोध की दृष्टि से भी किया । अब ब्रह्मवाद में जीव और जड़ के विरुद्धांशों के निराकरण के लिए तीसरा पाद प्रारम्भ करते हैं ।