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२७१ स्याताम् । कर्मापेक्षायां स्वनीश्वरं युक्तिमूलत्वाद्दोषाः, असामंजस्याद् हेतोर्न पतित्वेनेश्वरसिद्धिः ।
यदि ईश्वर को जीवों का पति मानते हैं तो भिन्न भी मानना होगा, तब विषम सृष्टि करने के कारण उस ईश्वर पर निर्दयता का दोष भी घटित होगा । यदि सृष्टि की विषमता में कर्म को अपेक्षित मानते हैं तो ईश्वरता खंडित होती ह । इस प्रकार यह मत असंगत है । ईश्वर का पतीत्व सिद्ध नहीं होता।
सम्बन्धानुपपत्तश्च ।२।।३८॥
जीवब्रह्मणोविभुत्वादज संयोगस्यानिष्टत्वात् पतित्वानुपपत्तिः । तुल्यत्वादप्यनुपपत्तिरित चकारार्थः ।
जीव और ब्रह्म को विमु मानते हो तो वह अज सिद्ध होते हैं, आज का संयोग अनित्य होता है, अतः ईश्वर का पतित्व सिद्ध नहीं होता । ईश्वर जीव को समान मानने सेभी पतित्व सिद्ध नहीं होता।
अधिष्ठानानुपपत्तश्च ।२।२॥३६॥
स चेश्वरी जगत् कर्त्त त्वेन कल्प्यमानो लौकिकन्यायेन कल्पनीयः । स चाधिष्ठत एव किंचित् करोतीतीश्वरे ऽप्यधिष्ठानमंगी कत्तव्यम् । तस्मिन् कल्प्यमाने मतविरोधऽनवस्था असंभवश्च ।
यदि उस ईश्वर की जगत के कर्ता के रूप में कल्पना करते हो तो लौकिक कर्ता की तरह ही कर सकते हो । वह भी अधिष्ठित होकर ही कुछ कर सकता है, इसलिए ईश्वर में भी अधिष्ठान स्वीकारना होगा। उसकी कल्पना में फिर मत विरोध और अनवस्था दोष होगा ।
करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः ।२।२।४०॥
करणवदंगीकारे असंबंधदोषः परिहतो भवति तच्च न युक्तम्, भोगादि प्रसक्तः ।
यदि ईश्वर को करण की तरह स्वीकार करते हो तो प्रसंबंध दोष हट