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नही अतः आत्मा की समानता की बात नहीं बनती, समान बस्तु शरीर प्राकार की हो नहीं सकती। न च पर्यायादप्यविरोधो विकारादिभ्यः ।।२।३५।।
शरीराणामवयवोपचयानुसारेणात्मनोऽपि देवतियङ मनुष्येषु अवयवोपचयाभ्यां तत्तुल्यता स्यात् । तथासति पर्यायेणाविरोध इति न वक्तव्यम् । तथासति विकारापत्तेः । संकोचविकासेऽपि विकारस्म दुष्परिहरत्वात् ।
यदि आत्मा को शरीरानुसार मानेंगे तो शरीरों के अवयवों के अनुसार मात्मा भी देव पशु और मनुष्यों में छोटा वड़ा होगा, ऐसा होने में पर्यायानुसार अविरुद्धता रहेगी यह नहीं कह सकते, और ऐसा होने में मात्मा विकृत सा हो जायगा। संकोच विकास में विकार को हटाया नहीं जा सकता। अन्त्यावस्थितेश्चोभयनित्यत्वादविशेषः । २।२।३६।।
अन्त्यावस्थितेमुक्तिसमयावस्थितिस्तस्माद् हेतोः । पूर्वदोष परिहाराय च उभय नित्यत्वं भवेदणुत्वं वा, महत्वं वा । उभयथापि शरीरपरिमाणो न भवतीति न तवार्थ सिद्धिः।।
जैन अन्तिम मोक्षावस्था में जीव का परिमाण नित्य मानते हैं, जब दोनो ही अवस्थायें नित्य हैं तो वह जीव कहीं अणु परिमाण का और कही महत् परिमाण का निश्चित होता है । यह तो कुछ बात न हुई मोक्ष की विशेषता ही क्या होगी? ४ प्रधिकरण पत्युरसामंजस्यात् ।२।२।३७॥
पराभिप्रेतांजडजीवानिराकृत्येश्वरं निराकरोति । वेदोक्तादणुमात्रेऽपि बिपरीतं तु यद् भवेत्, तादृष्टवा स्वतन्त्रं चेदुभयं मूलतो मृषा । ताकिंकादिमतं निराकरोति ।
नास्तिकों के जड़ जीव का निराकरण करके अब ईश्वर कारणवाद का निराकरण करते हैं । वैदिक सिद्धान्त से अणूमात्र भी जो मत विपरीत होता है, या उसी प्रकार उससे बिलकुल भिन्न स्वतंत्रमत होता है, वे दोनों ही मूल से ही गलत हैं । इसलिए अब ताकिकों के मत का निराकरण करते हैं।
पतिश्चेदीश्वरस्तस्माद् भिन्तस्तदा विषमकरणात् वैषम्य-नेण्ये