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असंगत है, वासनाओं से भाव नहीं होगा क्योंकि-तुम्हीं तो वाह्म वस्तु को निस्तत्व कहते हो सायवान् मानने पर ही वाह्य पदार्थ वासना जनक हो सकते हैं किन्तु वासना तो अनादि है, अतः अन्ध परम्परा की तरह वह कही भी रुकेगी तो है नहीं [अर्थात् जैसे एक अन्धे के पीछे दूसरा और दूसरे के पीछे तीसरा इत्यादि अनेक अन्धे बिना देखे चलते चले जाते हैं वैसे ही बिना किसी साधना के वासनात्मक विचित्र ज्ञान में प्राबद्ध ये जीव जगत को देखते हुए चवे जावेंगे, मुक्त तो हो न सकेंगे ] यदि विषयो के व्यतिरेक से वासना होती है तो, स्वप्न में देखी हुई वस्तु जैसे जागरितावस्था में अदृष्ट हो जाती है, वैसे ही, तुम्हारे कथनानुसार जब जगत असत्य है तो तज्जन्य वासना भी झूठी ही है, फिर उससे घबड़ाते क्यों हो? यदि वासना के व्यतिरेक विषयों की उपलब्धि मानते हो तो विषयों की उपलब्धि अन्वय व्यतिरेक से होगी, अर्थात जब वासना होगी तो विषय होंगे और जब वासना न होगी तो विषय न होंगे। इस प्रकार यह सारा जगत वासना निर्मित ही सिद्ध हुआ, ये क्या अनर्गल प्रलाप है।
क्षणिकत्वाच्च ।२।२॥३१॥
वासनाया आधारोऽपि नास्ति, पालयविज्ञानस्य क्षकरिणत्वात् बृत्ति 'विज्ञानवत् । एवं सौत्रांतिक विज्ञानवादी न प्रत्युक्तः । माध्यमिकस्तु मायावादिवदसंबद्धभाषित्वादुपेक्ष्य इति न निरा क्रिस प्राचार्येण ।
वासना का कोई स्थिर प्राधार भी तो नहीं है, क्योंकि--इनके मत में जैसे वृत्ति विज्ञान क्षणिक है वैसे ही प्रालय विज्ञान भी क्षणिक है । इस प्रकार सौत्रांतिक विज्ञानवादी भी सही मार्ग पर नहीं है । माध्यमिक, मायावादियों की सी ऊटपटांग बाते करते हैं इसलिए प्राचार्य ने उनका निराकरण ही नहीं किया।
सर्वथानुपपत्तश्च ।२।२।३२॥
किं बहुना ? बाह्यवादो यथा यथा विचार्यते तथा तथा असम्बद्ध सेवेत्यलं विस्तरेण । चकाराद् वेद विरीधो मुख्यः।