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"वायु और अन्तरिक्ष दोनों अमृत हैं" इसमें स्पष्टतः नित्य कहा गया है, आकाश की तरह वायु भी सर्वगत और नित्य है । अमृत स्वरूप ब्रह्म से जिसका दृष्टान्त दिया जाय उसकी उत्पत्ति हो भी कैसे सकती है ? स्याच्चैकस्य ब्रह्म शब्दवत् ॥२॥३॥५॥
ननुकथं वियदुत्पत्ति गौंणी भविष्यति । तत्र हि संभूत इत्येक मेव पदमुत्तरत्रानुवर्त्यते । तथा सत्युत्तरत्र मुख्या आकाशे गौणी इति युगपद् वृत्तिद्वय विरोध इति चेन्न । एकस्यापि स्यात् क्वाचिन्मुख्या क्वचिद् गौणीति । ब्रह्म शब्दो यथा "तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व," तपो ब्रह्म इति । प्रथम वाक्ये मुख्या द्वितीये गौणी। न चात्र प्रयोग भेदोऽस्तीति वाच्यम् । संभूत शब्दोऽप्यावर्तते । नतु तादृशार्थ युक्तोऽपि । आत्मसत्वेनैव तत्सत्वं इति सत्वगुणो वचन हेतुः । तत्तद भावापन्नं ब्रह्म व सर्वत्र कारणमिति नानेकलक्षणा । तद्भावापत्ति विशेषण व्यावृत्यर्थमपि न लक्षणा । स्वभावतोऽपि ब्रह्मणः सर्वरूपत्वात् तस्माद् गौणी आकाश संभूति श्रुतिः ।
आकाशोत्पत्ति गौणी कैसे हो सकती है, क्योंकि उसके वर्णन के बाद ही "संभूत" ऐसा पद कहा गया है, ऐसा जब स्पष्ट उल्लेख है तो आकाशोत्पति मुख्य प्रतीत होती है, मुख्या और गौणी दोनों बातें एक साथ हों, ऐसी विरुद्धता तो समझ में नहीं आती । ऐसा तर्क भी विषय को न जानने के कारण ही किया जाता है, वस्तुतः एक ही वस्तु कभी गौणी कभी मुख्या हो सकती है, जैसे कि-ब्रह्म शब्द का ही उदाहरण लेलें । "तप से ब्रह्म को जानों' तप ब्रह्म है" इसमें प्रथम वाक्य मुख्या और द्वितीय में गौणी है । यहाँ प्रयोग भेद है ऐसा भी नहीं कह सकते । संभूत शब्द की ही आवृत्ति की गई है। किसी अन्य की नहीं। प्रयोग भेद तो जब माना जाता जबकि तादृशार्थ अर्थात् किसी की किसी से तुलना की जाती। सत्कार्य वाद में उत्पत्ति की पूर्व दशा में कारण भाव से ही कार्य रहता है, आत्मा ही उसमें कारण है, अतः पूर्वदशा में आकाश कारण भाव से रहता है, इसलिए आत्मासत्ता से ही उसकी सत्ता है, उसकी आकाश रूप से पृथक् सत्ता नही रहती । सृष्टिदशा में अन्य कार्य की तरह ब्रह्म से प्रकट आकाश की जो पृथक् रूप से सत्ता होती है वही संभूत पद से गौणी बात कही गई है। वायु की संभूति का बोधक वाक्य आकाशभावापन्नता का, अभिसंभूति का बोधक वाक्य वायुभावापन्नता का बोधक है क्योंकि सब जगह ब्रह्म ही एकमात्र कारण है इसलिए अनेक लक्षण-नहीं की गई है । तद्भावापत्ति विशेषण के निराकरण के लिए भी लक्षण-नहीं की गई है क्योंकि सब स्वभाव से ब्रह्म रूप ही तो है। इसलिए आकाश संभूति गौणी ही है।