________________
शंका करना भी ठीक नहीं, वस्तुतः यह शब्द भगवान् के सर्वत्व गुण का ही बोधक है, उसी रूप में यह भगवान में घटित होगा। इसलिए यह निश्चित हा कि, भूमा, भगवान् ही हैं।
धर्मोपपत्तश्च ॥१॥३६॥
"नान्यत् पश्यति" इत् गदयोऽपि धर्मा ब्रह्मणि न विरुद्धयन्ते, स्वाप्ययसंपत्त्योरन्यतरापेक्षमाविष्कृतंहीति न्यायेन । “यत्र हि द्वतं इव भवति" इत्यादि श्र त्या उभयत्राम्नानात् । अन्यादर्शनादयो भगवति न विरुद्धयन्ते । चकारात फलं तस्यैवोपपद्यत इत्याह--‘स वा एष एवं पश्यन्" इत्यादिना "सहस्राणि च विंशति" इत्यन्तेन । तेन भूमा ब्रह्म वेति सिद्धम् ।
"दूसरा कुछ नहीं देखता" इत्यादि धर्म भी ब्रह्म में विरुद्ध नहीं हैं, क्योकि स्वप्न और मुक्ति दोनों में ही भगवत सानिध्य रहता है, दोनों ही अवस्थाओं में जीव का आविष्कृत रूप होता है । 'जहाँ त सा होता है" इत्यादि श्रुति दोनों अवस्थाओं के लिए कही गई है । “जिसको जानने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है" इस नियम के अनुसार “नान्यत् पश्यति ' इत्यादि वाक्य भगवान् के स्वभाव से विरुद्ध नहीं होते । “स वा एष एवं पश्यन्" से लेकर "सहस्राणि च विश ति" तक यही दिखलाया गया है कि सभी धर्म उन्हीं में उपपन्न होते हैं । इससे भूमा ब्रह्म ही है, ऐसा सिद्ध होता है ।
३ अधिकरण :--
अक्षरमम्बराधृतः ।१३।१० ___ गार्गी ब्राह्मणे “कस्मिन्नु खल्वाकाश प्रोताच प्रोतश्च" "स होवाच, एतद् वै तदक्षरं गागि ब्राह्मणा अभिवदन्ति अस्थूलमनणुः" इत्यादि श्रूयते । तत्र संशयः, किमक्षर शब्देन पदार्थान्तरं ब्रह्म वेति ?
गार्गी ब्राह्मण की श्रुति है कि, "यह प्राकाश किसमें प्रोत प्रोत है ?" उन्होंने कहा, हे मागि ! यह उस अक्षरं में प्रोत प्रोत है जिसे ब्रह्मवादी अस्थूल अनणु प्रादि गुणों वाला बतलाते हैं ।'' इस पर संशय होता है कि, यह अक्षर, ब्रह्म है अथवा कोई दूसरा पदार्थ है ?''