________________
२५३
की खोज करना व्यर्थ है। लीला ही प्रयोजन है। जब लौकिक लीला में प्रयोजन की खोज नहीं की जाती, फिर ये तो ईश्वरीय लीला है इसका विचार शक्य है भी नहीं। उनकी यह लीला ही मोक्ष है अर्थात् उनकी लीला का जो लोग कीर्तन करते हैं वे मोक्ष प्राप्त करते हैं, अर्थात् इस सृष्टि का विचार करने से मुक्ति प्राप्ति होती है । वह लीला ही स्वयं प्रयोजन है, वही मोक्ष है। उनके सामर्थ्य और स्वरूप के माहात्म्य को बतलाने के लिए सूत्रकार ने कैवल्य पद का प्रयोग किया है। वैषम्यनेण्ये न सापेक्षत्वात् तथाहि दर्शयति ।२।१।३४॥
कांश्चित् सुखिनः कांश्चित् दुःखिनश्च प्रलयं च कुर्वन् विषमो निघृणश्चेति चेन्न, सापेक्षत्वात् । जीवानां कर्मानुरोधेन सुखदुःखे प्रयच्छतीति । वादिबोधनायैतदुक्तम् वस्तुतस्त्वात्मसृष्टवैषम्यनण्यसंभावनैव नास्ति । वृष्टिवत् भगवान् बीजवत्कर्म, श्र तिरेव तथा दर्शयति-"एष ह्य व साधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषति, एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषति, पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन कर्मणेति च" सापेक्ष्यमपि कुर्वन्नीश्वर इति माहात्म्यम् ।
यदि कहें कि संसार में कोई सुखी है कोई दुःखी है, किसी को भगवान् मारते हैं, इससे ती भगवान में विषमता और निर्दयता का मारोप होता है, सो बात नहीं है, जीवों को अपने कर्मानुसार ही सुखदुःखादि की प्राप्ति होती है, भगवान् तदनुसार ही सुखदुःख देते हैं । यह बात संशय करने वाले के बोध के लिए कही गई, वस्तुतः तो स्वयं अपने को ही जब भगवान सृष्टि के रूप में प्रकट करते हैं तो विषमता और निर्दोषता का प्रश्न ही क्या है ? ये बात तो दृतभाव में होती है । भगवान् वृष्टि के समान हैं और कर्म बीज के समान है जैसा कर्मों का बीज बोया जावेगा भगवान उसको उसी रूप से वृद्धि करेंगे, वे जलवृष्टि के समान तटस्थ उन्नायक हैं। ऐसा ही श्रुति का कथन भी है--"यही साधुकर्म कराते हैं और ऊपर तक ले जाते हैं और यही असाधुकर्म कराकर नीचे गिरा देते हैं । पुण्य कर्म से पुण्य और पाप कर्म से पाप होता है" इत्यादि । कर्मसापेक्ष्य फल देना ही ईश्वर का माहात्म्य है। न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात् ।२.१.३५॥