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चेतन अचेतन का व्यवहार है । शरीर धारी और अलौकिक जीव चार प्रकार के चेतन हैं । बाकी सब अचेतन हैं। उनकी दृष्टि से ही यहां विचार करें तो वे प्रधान के परिणाम नहीं हो सकते, इसके गतिरिक्त और किसी पर विचार अपेक्षित नहीं है। पयोम्बुवच्चंत्तत्रापि ।२।२।३।।
यथा पयो विचित्रफेनरचनांकरोति, यथा वा नद्या दजलं स्वतएव स्वन्दत इतिचेत् न, तत्रापि दोहनाधिश्रयणे मेघानां चेतनानामेव मत्वात् । व्याख्यानान्तरेत्वन्नाम्बुवदित्युच्येत् । द्वितीयस्य समाधानं नोभयवादि संम्मतम् ।
जैसे कि जल चिचित्र फेनों की रचना करता है या नदी का जल स्वतः स्पन्दित होता है, वैसे ही यह जगत् प्रधान रचित होकर स्वयं सन्दित है, इत्यादि तक भी प्रस्तुत नहीं किए जा सकते, ये दोनों ही दृष्टान्त, चेतन द्वारा स्पन्दित वस्तु के हैं, चेतन मेघों का अस्तित्व इनमें विद्यमान है। व्यतिरेकानवस्थितेश्चामपेक्षत्वात् ।२।२।४॥
प्रधानस्थान्यापेक्षाभावात् सर्वदा । कार्यकरणमेव, न व्यतिरेकेण तूष्णीमवस्थानमुचितम् । पुरुषाधिष्ठानस्य तुल्यत्वात् सेश्वरस्यसांख्यमतेऽप्यश्वयं तदधीन मिति यथास्थितमेव दूषणम् ।
प्रकृति के कर्तृत्व का निराकरण करके अब उसके स्वतः परिणाम का निराकरण करते हैं-कहते हैं कि गुणत्रय साम्यावस्था वाली प्रकृति को परिणाम के लिए किसी की अपेक्षा अवश्य होती है तभी वह क्षुभित होकर कार्य करती है, यदि वह कार्य नहीं करे तब तो उसका चुप बैठना ही उचित है [अर्थात् यदि वह अपेक्षित शक्ति के बिना कार्य करेगी भी तो वह सुव्यवस्थित न होकर ऊटपटांग होगा, इससे तो न होना ही ठीक है ] यदि पुरुष के अधिष्ठान में वह कार्य करती है तो भी वही बात होगी, क्योंकि पुरुष अनन्त हैं, भिन्न रुचि होने से सबत्र नियमित कार्य नहीं होगा कही कुछ
और कहीं कुछ होगा। ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाले सांख्य मत में जहां ईश्वर का अधिष्ठान स्वीकार करते हैं उसमें भी दोष बैंसा का वैसा ही रहता है, क्योंकि उसमें भी अधीनता तो प्रधान की ही रहती है, ईश्वर को, ब्रह्मवादियों के ब्रह्म 'की सी स्वतन्त्रता तो रहती नहीं। वह तो प्रकृति के अनुकूल ही सृष्टि कर सकता है, अलोकिक सृष्टि तो संभव नहीं है।