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न कर्मविभागात् कार्योद्गमाद् पूर्व संभवति, पश्चात्वन्योन्याश्रय इनि चेन्न । अनादित्वात्, बीजाकु रवत् प्रवाहस्यानादित्वात् ।
(वाद) प्रापकी ये बात समझ में नहीं प्राती, कार्य के उद्गम के पहिले कर्म का विभाग तो हो नहीं सकता [अर्थात् सृष्टि के पूर्व तो कर्म का निर्णय हो नहीं सकता, विषमता प्रादि तो सृष्टि के प्रारंभ से ही चली श्रा
है ] यदि सृष्टि के बाद ये व्यवस्था प्रारंभ हुई है तो सृष्टि और कर्म एक दूसरे पर आधारित हैं फिर तो विष्मता श्रौर निर्दयता का लांछन भगवान पर होगा । ये संशय भी भ्रमात्मक है, सृष्टि श्रनादि है. इसकी अनादिता बीजांकुर के समान प्रवाह नित्य है ।
उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च २|१|३६||
कथमनादित्वमिति चेद् उपपद्यते, अन्यथा कस्य संसार: ? कृतहान्यकृताभ्यास प्रसंग: । उपलभ्यते च श्रुतिस्मृत्योः- “ अनेन जीवेनात्मनेति" सर्गादी जीवप्रयोगादनादित्वम् " तपसैव यथा पूर्वं स्रस्टविश्वमिद भवान् " इति च ।
यदि कहें कि - नादित्व कैसे संभव है ? सो संभव है, यदि संभव न हो तो फिर संसार कैसा ? यदि ऐसा न हो तो कृत हानि श्रोर कृताभ्यास जैसी निरर्थक बात हो जायेगी [अर्थात् बनाना बिगाड़ना, बार बार ऐसा ही करते रहना जैसी बिना हेतुक क्रिया होना भी तो, नासमझी कहलायेगी ] सृष्टि की अनादिता की बात श्रुति स्मृति में स्पष्ट कही गई है-' भनेन जीवेन" इत्यादि में, सृष्टि के आदि में ही जीव की स्थिति बतलाई इससे अनादिता निश्चित होती है, कर्म के बंधन से ही तो जीवत्व भाव होता है । "आप ने तप के द्वारा, जैसा पहिले था वैसा ही यह विश्व रच दिया" इत्यादि स्मृति से भी यही मिश्चित होता है ।
सर्वधर्मोपपत्तश्च | २|१|३७||
उपसंहरति । वेदोक्ता धर्माः सर्वे ब्रह्मण्युपपद्यते सर्व समर्थत्वादिति ।
प्रसंग का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि वेदोक्त सारे धर्म ब्रह्म में उपपन्न होते हैं, क्योंकि वे सर्व समर्थ हैं ।
द्वितीय अध्याय प्रथम पाद समाप्त |