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परमात्मा सब शक्तियों से संपन्न और सत्यादि गुण संपन्न हैं, वेद में ऐसा ही उनके स्वरूप का वर्णन मिलता है जैसे कि--"जो सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान, सर्वकर्ता और सर्वकाम है" इत्यादि । विकरणत्वान्नेति चेत्तदुक्तम् ।।१।३१।।
कर्ता इन्द्रियवान् लोके । ब्रह्मणो निरिन्द्रियत्वात् कथं कर्तुत्वमिति चेन्न । अस्य परिहारः पूर्वमेवोक्तः, श्रु तेस्तु शब्दमूलत्व दित्यत्र । अनवगाध माहात्म्ये श्रुतिरेव शरणं, नान्या वाचोयुक्तिरिति । __ यदि कहो कि-लोक में तो इन्द्रियवान ही कर्ता होता है ब्रह्म के तो इन्द्रियां हैं नहीं वह कर्ता कैसे हो सकता है ? इसका परिहार हम "श्रुतेस्तु शब्द मूलत्वात्" सूत्र में कर चुके हैं । दुरूह माहात्म्य में श्रुति ही प्रमाण है, उसमें वाणी की युक्ति नहीं चलेगी। न प्रयोजनवत्वात् ।।१॥३२॥
न ब्रह्मजगत्कारणं, कुतः ? प्रयोजनवत्वात्, कार्य हि प्रयोजनवद् दृष्ट लोके । ब्रह्मरिण पुनः प्रयोजनवत्वं संभावयितुमपि न शक्यते । प्राप्त. कामच तिविरोधात् । व्यधिकरणो हेतु समासो वा। ___ शंका करते हैं कि-ब्रह्म जगत का कारण नहीं हो सकता, उसे जगत् की सृष्टि करने में प्रयोजन ही क्या हैं ? लोक में प्रायः प्रयोजन से ही कार्य होता है । ब्रह्म में प्रयोजन की संभावना भी नहीं की जा सकती। थ ति तो उन्हें प्राप्तकाम कहती है, यदि उन्हें सृष्टि में कोई प्रयोजन है तो उक्त श्रुति से विरुद्धता होगी। लोकवत्त लीलाकैवल्यम् ।२।१।३३।। __तु शब्दः पक्षं व्यावतंयति । लोकवल्लीला, नहि लीलायां किचित् प्रयोजनमस्ति । लीलाया एव प्रयोजनत्वात् । ईश्वरत्वादेव न लीलापर्यनुयोक्तं शक्या । सा लीला कंवल्यं मोक्षः तस्यलीलात्वेऽप्यन्यस्य तत्कीर्तन मोक्ष इत्यर्थः । लीलैव केवलेति वा ।
सूत्रस्थ तु शब्द पूर्वसूत्रीय पक्ष का व्यावर्तक है। सांसारिक राजा राजपुरुष आदि जैसे मृगया प्रादि खेल करते हैं, उनमें कोई खास प्रयोजन नहीं होता वैसे ही सृष्टि, भगवान् की एक लीला मात्र है, उसमें प्रयोजन