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उनमें
महत् और दीर्घ दोनों रूप नहीं हो सकते, क्योंकि - परमाणुत्रों में कोई कर्म तो है ही नहीं । सूत्रस्थ नकार देहली दीपक न्याय से दोनों ओर लगेगा । कर्म न होने से दूयणुक भी नहीं हो सकेंगे इसलिए परमाणुत्रों का संघट्टन दोनों रूपों में संभव नहीं है उसके लिए संघट्टन का कोई स्थान भी तो नहीं है, यह तो केवल कल्पना मात्र है । जब वे मिल नहीं सकेंगे तो जैसे के जैसे ही रहेंगे। संयोग करने वाला कोई कर्म भी तो स्वतः संभव नहीं है, उसमें कोई कारण तो है नहीं । यदि यह मान लें कि वे स्वतः प्रयास करके श्रापस में मिल जाते हैं अथवा उनका आपसी मिलन देवात् हो जाता है, वो भी तो नहीं हो सकता क्यों कि उनमें अवयवत्व भी तो नहीं हैं, वे तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं । न कोई विशेष रूप है और न उनका विभाग ही शक्य है, इसलिए उनमें द्वयरगुक रूप संभव नही है ।
दूसरा
समवायाम्युपमगाच्च साम्यादनवस्थितेः । २२|१३||
परमाणुद्वयणुकयो : समवायोगीक्रियते, स संबधिनोरवस्थानमपेक्षते संबंधस्योभयनिष्ठत्वात् स च नित्यः सदा संबधिसत्वमपेक्षते, प्रतोऽपि न द्वयक उत्पद्यते । किंच समवायो नांगीकत्तं शक्यः, संयोगेन तुल्यत्वात् । संबंघत्वात्तस्य । यथा संबंधिनिसंबन्धान्तरापेक्षा एवं समवायस्यापि तथा सत्यनवस्थिति: ।
ये लोग परमाणु और द्वयणुक में समवाय संबंध मानते हैं, यह संबंध, संबंधी के प्रवस्थान की अपेक्षा रखता है क्योंकि संबंध उभय निष्ठ होता है, वह भी नित्य और सदा संबंधित्व की अपेक्षा रखता है, इस लिए भी द्वयणुक की उत्पत्ति संभव नहीं है। समवाय भी नहीं मान सकते क्योंकि इसमें संयोग से तुल्यता होती है । क्योंकि उसका उससे संबंध होता है । जैसे किसंबंध में, संबंधांतर अपेक्षित होता है, वैसे ही समवाय की भी वैसी स्थिति होती है, उस स्थिति में अनवस्था होगी ।
नित्यमेव च भावात् । २।२।१४॥
परमाणोः कारणान्तरस्य च नित्यमेव भावात् सदा कार्यं स्यात् ।
परमाणु और अन्य कारण नित्य मानते हो इसलिए सृष्टि भी सदा रहनी चाहिए [ किन्तु ऐसा है नहीं]