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२६१ रूपादिमत्वाच्च विपर्यायोऽदर्शनात् । २।२।१५॥
यद्पादिमत् तदनित्यम् । परमाणोरपिरूपादिमत्वात् विपर्ययः । अनित्यत्वपरमाणुत्वं च । न च प्रमाणबलेन तदतिरिक्त व्याप्तिरिति वाच्यम्, प्रदर्शनात्, कार्यानुपपत्तिः श्रुत्यैव परिहृता ।
रूपवान् वस्तु अनित्य होती है, प्रमाण भी रूपवान हैं, रूपवान होने से सब उलट जाता है क्योंकि वे अनित्य सिद्ध होते हैं। प्रमाण के बल से उनके स्वरूपान्तर की कल्पना संभव नहीं है क्योंकि वे अदृश्य होते हैं। उभयथापि दोषात् २।२।१६॥
परमाणूनां रूपादिमत्वेन तदभावे च दोषः। एकत्रानित्य त्वमन्यत्र कार्यरूपस्यनिर्मूलत्वं च । हरिद्राचूर्णसम्बन्धे रूपान्तरस्य जननाद् विरोधोऽपि चकारार्थः:
परमाणुओं को रूपवान और विनारूपवाला दोनों प्रकार से मानने में असंगति है । यदि वे रूपवान हैं तो एकत्र होने पर उनकी अनित्यता निश्चित होती है. कार्य रूप वस्तु की निर्मूलता ( रूप रहितता) कैसे सम्भव है। हरिद्राचूर्ण के संयोग से जैसे रूप बदलता है, वैसा मानने पर भी विरुद्धता होगी। अपरिग्रहाच्चात्यन्तमनपेक्षा ।।२।१७।।
सर्ववैदिकानामपरिग्रहाच्चात्यन्तं सर्वथा नापेक्ष्यते । प्राचार्य इस मत को दूषित मानते हैं सो बात नहीं है अपितु वैदिक मत भ्रष्ट न हो इसलिए उसकी उपेक्षा करते हैं । ३अधिकरण समुदाय उभयहेतुकोऽपि तदप्राप्तिः ।२।२॥१८॥
अतः परं बाह्यमतनिराकरणम् । ते समुदायद्वयं जीवभोगार्थ संहन्यत इति मन्यन्ते। परमाणुसमूहः पृथिव्यादिभूतसमुदाय एकः रूपादिस्कन्ध समुदायश्चापरः। रूपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कार संज्ञकाः पंचस्कन्धाः । तदुभयसम्बन्ध जीवस्य संसारः । तदपगमे मोक्षः। तत्र उभयहेतुकेऽषि समुदायजीवस्य अप्राप्तिः । क्षणिकत्वात् सर्वक्षणिकत्वे जीवमात्रक्षणिकत्वे वा तदप्राप्तिः ।