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अब बौद्धों के वाद्यार्थानुमेयवाद का निराकरण करते हैं वे लोग जीव भोग के लिए दो समुदाय की सहति मानते हैं। एक तो परमाणुओं के समूह रूप पृथिवी, जल, तेज, वायु का समुदाय दूसरा रूपादि स्कधों का समुदाय । रूप, विज्ञान, वेद , संज्ञा और संस्कार नामक पांच स्कन्ध मानते हैं। इन दोनों समुदायों के संबंध से जीव का संसार से संबंध मानते हैं, यदि इन दोनों का संबंध जीव से अलग हो जावे तो जीव का मोक्ष हो जावे । किन्तु ये सबको क्षणिक मानते हैं तो ये दोनों समुदाय जीव से संबद्ध हो कैसे सकते हैं, फिर जीव भी तो क्षणिक होगा. उसका संबंध कैसे हो पावेगा? इतरेतरप्रत्ययत्वादिति चेन्नोत्पत्तिमात्रनिमित्तत्वात् । २।२।१६॥
क्षणिकत्वेऽपि पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तरप्रत्ययविषयत्वात् कारणत्वात् सन्ततेरेव जीवर राज्जडत्वाच्च न काप्यनुपपत्तिरितिचेन्न उत्पतिमात्रनिमित्तत्वात् । अनुसंधानाभ्युपगमे स्थिरत्वापत्तिः। संबंधवियोगार्थ को वा यतेत् ? स्थैर्याभावात् समुदायानुपपत्तिश्च ।
क्षणिक होते हुए भी वे परस्पर होने वाले प्रत्येक के कारण होते हैं अर्थात् पूर्व, परमाण, उत्तरोत्तर क्रम से कारण हैं, पिछला अणु अगले अणु को उत्पन्न कर समाप्त हो जाता हैं, इस प्रकार सन्तति क्रम से जड और जीव की उत्पत्ति विनाश, विनाश मोर उत्पत्ति होती रहती है इसलिए कोई अड़चन नहीं है । ऐसा करना भी संभव नहीं है, क्योंकि वे केवल उत्पन्न मात्र ही तो करते हैं, संगठन तो नहीं करते। विज्ञान संतति जीव को पूर्व कालीन प्रिय अप्रिय वस्तुओं की प्रतीत होती है उससे तो स्थिरत्व की बात समझ में आती है यदि स्थिर न मानें तो वेदनादि स्कन्धनात्मक सार की सिद्धि कैसे होगी? दूसरी बात, संतति रूप जीव की क्षणिकता मानने से स्थयंता का अभाव होगा तो फिर रूपादि स्कंघं संबंध को समाप्त करने का प्रयास कौन करता है। स्थैर्य नहीं होगा तो समुदाय नहीं हो सकता ।
उत्तरोत्पादे च पूर्वनिरोधात् । २।२।२०॥
उत्तरोत्पत्तिरपि म संभवति, उत्पन्नस्य खलुत्पादकत्वम् अत रत्तरोत्पत्ति समये पूर्वस्यनष्टत्वात् उत्पत्तिक्षण एव स्थितिप्रलयकार्यकारणसर्वागीकारे विरोधादेकमपि न स्यात् ।