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उत्तरोत्पत्ति भी संभव नहीं है, क्यों कि- उत्पन्न की भी तो उत्पादकता है, इसलिए उत्तरोत्पति के समय, पूर्व तो नष्ट हो चुकता है, उत्पत्ति के समय ही स्थिति और प्रलय, अर्थात् कार्य और कारण एक साथ कैसे मानते हो ? यह तो विरुद्ध बात है, दोनों में से एक भी नहीं हो सकते । श्रसति प्रतिज्ञोपरोधो यौगपद्यमन्यथा । २।२।२१ ॥
एकाक्षणिकत्व प्रतिज्ञा । अपरा चतुर्विधान् हेतून प्रतीत्य चित्तचत्ता उत्पद्यन्त इति वस्तुनः क्षणांतरसंबंध प्रथमप्रतिज्ञा नश्यति 1 श्रसति द्वितीया । द्वितीया चेन्नांगीक्रियते तदा प्रतिबंधाभावात् सर्वं सर्वत एक देवोत्पद्यत ।
एक तो क्षणिकत्व मानते हैं, दूसरे चार प्रकार के हेतुओं की प्रतीति से चित्त और चैत की उत्पत्ति मानते हैं । वस्तु के क्षरणतिर सम्बन्ध से तो प्रथम प्रतिज्ञा नष्ट हो जाती है । यदि हेतु के बिना फलोत्पत्ति मानें तो द्वितीय प्रतिज्ञा नष्ट हो जाती है । यदि द्वितीया को नहीं मानते तो प्रतिबन्ध का अभाव हो जाता है, फिर तो सब सब जगह एक साथ उत्पन्न होंगें ।
प्रतिसंख्याप्रतिसंख्या निरोधाप्राप्तिरविच्छेदात् |२२|२२||
अपि च वैनाशिकाः कल्पयन्ति, बुद्धि बोध्यत्रयादन्यत् संस्कृतं क्षणिकं चेति । त्रयं पुनर्निरोधद्वयमाकाशश्च । तत्रेदानीं निरोधद्वयांगीकारं दूषयति ।
प्रतिसंख्या निरोधो नाम भावानांबुद्धिपूर्वको विनाशः विपरीतोऽप्रति संख्या निरोधः । त्रयमपि निरुपाख्यम् । निरोधद्वयमपि न प्राप्नोति, संतरविच्छेदात् । श्रद्योनिरोधः पदार्थविषयको व्यर्थः । द्वितीयः क्षणिकांगीकारेणैव सिद्धत्वानांगीकर्त्तव्यः ।
सर्वानित्यवादी कल्पना करते हैं कि बुद्धि वोध्य तीन तत्वों के प्रतिरिक्त सब संस्कृत अर्थात् व्यवहार योग्य और क्षणिक हैं। दो निरोध और एक आकाश ये तीन तत्व हैं । इस जगह दोनों निरोधों की मान्यता का निराश करते हैं । भावों के बुद्धि पूर्वक विनाश का नाम प्रतिसंख्या निरोध है, इससे बिपरीत श्रप्रतिसंख्या निरोध है । तीनों ही विचारणीय है । दोनों