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तुम्हारा यह विचार भी असंगत है, इस प्रकार भी अव्यवस्था होगी । विचार करना होगा कि पुरुष जो प्रधान को प्रेरणा देता है वह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है या प्रधान की इच्छा से वह ऐसा करता है ? स्वतः तो वह प्रेरणा देगा ही क्यों, उसे प्रयोजन ही क्या है ? यदि प्रधान की इच्छा से देता है तो प्रधान के स्वभावानुसार वह दोषपूर्ण ही होगी, जिससे स्वाभाविक अव्यवस्था होगी । फिर प्रकृति से पुरुष का नित्य संबंध होने तथा सृष्टि में विशेष कारण रूप होने से पुरुष का कभी प्रकृति से छुटकारा तो संभव है नहीं । असक्त व्यक्ति के मोक्ष की बात तो कभी मानी नहीं जा सकती ।
अंगित्वानुपपत्तेश्च | २|२८|
प्रकृतिपुरुषयोरंगां गित्वे भवेदप्येवम्, तच्चनोपपद्यते पुरुषस्यांगित्वे ब्रह्मवादप्रवेशो मतहानिश्च । प्रकृतेरं गित्वेत्वनिर्मोक्षः अनेन परिहृतोऽपि मायावादी निर्लज्जानां हृदये भासते ।
प्रकृति और पुरुष का अंगागीभाव मानने पर भी यही श्रव्यवस्था होगी अतः वह संभव नहीं है । यदि माया को पुरुष का अंगी मानते हैं तो ब्रह्मवाद प्रवेश हो जायेगा और तुम्हारी मत हानि होगी । और यदि पुरुष को माया का अंग मानते हैं तो पुरुष का मोक्ष संभव नहीं है । इस प्रकार परिहार हो जाने पर भी यदि मायावाद का प्राग्रह किया जाय तो वह निर्लज्जता है मोर कुछ नहीं ।
श्रन्यथानुमितौ च ज्ञशक्तिवियोगात् । २|२||
श्रन्यथा वयं सर्वमनुमिमीमहे । यथा सर्वेदोषाः परिहृताः भवेयुरितिचेत् तथापि पूर्वज्ञानशक्तिर्नास्तीति मंतव्यम्, तथासति बीजस्यंवाभावान्नित्यत्वनिर्मोक्षइति ।
हम आपकी सब बातें मानलें और आपका मत निर्दोष भी मान लें फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि सृष्टि पूर्व में ज्ञान शक्ति नहीं थी ( क्योंकि - प्रकृति पुरुष के संयोग से ही तुमने सब कुछ मान रक्खा है | ) जब ज्ञान शक्ति नहीं होगी तो बीज के प्रभाव से सृष्टि की नित्यता सिद्ध होगी मौर फिर सृष्टि की समाप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता ।