________________
३५०
लोके | १|२५||
स्वतोऽभिन्नकरणे दृष्टा: यथा देवर्षिपितरौ बाह्यनिरपेक्षा एवं स्वयोगबलेन सर्वकुर्वन्ति, एवं ब्रह्माप्यनपेक्ष्य तत्समवामं स्वतएव सर्वकरोति ।
दही के दृष्टान्त पर संशय होता है कि दूध को जमाने में जामन की पेक्षा होती है सृष्टि परिणाम में समवाय कौन है ? उस पर दृष्टान्तं देते है कि- जैसे देव ऋषि पितर आदि निरपेक्ष भाव से अपने योग बल से सब कुछ कर लेते हैं वैसे ही ब्रह्म भी निरपेक्ष होकर सब कुछ करते हैं । कृत्स्नप्रसक्तिनिरवयवत्व शब्दकोपो वा । २|१|२६||
कमेव ब्रह्म स्वात्मानमेवं जगत् कुर्यात् कृत्स्नं ब्रह्मकमेव कार्य भवेत् । श्रंशांशभेदेन व्यवस्था तथासति निरवयवत्व श्रुतिविरोधः, " निष्कलं निष्क्रियं शान्तम्" इति ।
ही कार्य है, इसके मतलब जगत और ब्रह्म में 'मानने से "निष्फल निक्रिय शान्त" प्रादि जो विरोधाभास होता है ।
यदि एक ही ब्रह्म स्वयं जगत रूप हो जाता है तो कहना चाहिए कि ब्रह्म अंशांश भेद है, किन्तु ऐसा ब्रह्म परम श्रुति है, उसमें
तेस्तु शब्दमूलत्वात् । २।१।१७।।
तु शब्दः पक्ष ं व्यात्तं यति । श्रुतेः श्रूयत एव द्वयमपि न च तं युक्त
?
बाघनीयम् शब्दमूलत्वात् शब्दे कसम निगम्यत्वात् । अचित्याखलु ये भावान सांस्तर्केण योजयेत्, अर्वाचीन विकल्पविचारकुतर्क प्रमाणाभासशास्त्र कलिलान्तः कररण दुरवग्रहवादिनां वादानवसरे सर्वभवनसमर्थब्रह्मणि विरोधा भावाच्च । एवं परिहृतेऽपि दोषे स्वभत्त्याऽनुपत्तिमुद्भाव्य सर्वसप्लवं बदन मंदमतिः सद्भिरुपेक्ष्यः ।
सूत्रस्थ तु शब्द उपयुक्त पक्ष का निराकरण करता है । कहते हैं किनिको युक्ति से नहीं काट सकते, वह शब्दमूलक है, उसे तो शब्द के सहारे ही समझा जा सकता है, श्रुति के शब्दों के जो दुरूहं प्रचिन्त्य भाव हैं उनमें तर्क की योजना नहीं करनी चाहिए । जो वस्तु प्रकृति से परे होती है वह चिन्त्य होती है । भए नए विकल्प विचार कुतर्क और प्रमाणों से जो