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स्पष्ट कर्म कत्त का भेद तथा विज्ञानानद" में ज्ञाता ज्ञेय का भेद कहा गया है। जो जीव जितना कर्तव्य करता तदनुसार फल पाता है, संपूर्ण व्यक्तित्व, अंश का हित नियमतः कर भी नहीं सकता, जैसे कि-- मनुष्य अपने अंश केश नख आदि को काटता है, क्या उसे प्रहित कहा जावेगा ? यदि ऐसा मान लेंगे तो, इन्द्रियों के कार्य ही रुक जावेंगे [अर्थात् बोलने में सहस्रों कीटाणों की हत्या होती है, चलने फिरने में भोजन करने में आदि अनेक कर्मों में जीव हिमा होती है क्या उसे प्रहित कहते हैं ?] परमात्मा अपनी लीला से हित और अहित को एक कर देते हैं । अश्मादिवच्च तदनुपपत्तिः ।२।१।२३।। ___ पार्थिवत्वाविशेषेऽपि हीरमाणिक्यपाषाणानां पलाशचम्पकचन्दनानां उच्चनीचत्वमेवं जीवस्यांशत्वाविशेषेऽपि ब्रह्मादिस्थावरान्तानां उच्चनीचत्वम् । कार्यवैलक्षण्यं तदनुरोधश्चदर्शितः ।
सामान्यतः सभी वस्तुएँ पार्थिव हैं किन्तु हीरा माणिक्य और साधारण पत्थर तथा पलाश, चम्पक और चंदन आदि में ऊँचा नीचा भाव है वैसे ही सारे जीव परमात्मा के अंश हैं पर ब्रह्मा से लेकर साधारण जीवों तक में ऊँचा नीचा भाव है। इस प्रकार जगत की जो विलक्षणता है वह, उनकी . अधीनता का द्योतक है। उपसंहार दर्शनान्नेतिचेन्न क्षीरवद्धि ।२।१।२४॥
ब्रह्म व केवलंजगतका रणमित्युक्तम् । तन्नोपपद्यते । कुलालादेचक्रादिसाधनान्तरस्योपसंहारदर्शनात् संपादनदर्शनादिति चेन्न, क्षीरवद्धि, यथाक्षीरं कर्तारमनपेक्ष्य दधिभवनसमये दधि भवति, एवमेव ब्रह्मापि कार्यसमये स्वयमेव सर्व भवति ।
ब्रह्म को ही एकमात्र जगत् का कारण कहा गया है। ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि घट के निर्माण में चक्र आदि अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, बड़ी निगरानी और कुशलता के बाद घट का निर्माण होता है। ये तर्क सृष्टि के संबंध में नहीं किया जा सकता, सृष्टि तो दूध से होने वाले दही के समान परिणाम वाला है जैसे कि दूध बिना किसी अपेक्षा के स्वयं ही दही की अवस्था को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही ब्रह्म भी सृष्टि के समय स्ववं जगत रूप हो जाता है ।