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यथा च प्राणादिः | २|१|२०||
यथा प्राणापानानां नियमने जीवनमात्रम् प्रनियमने आकुंचनादि । तावता प्राणभेदः । पूर्वमसत्वं वा तथा जगतोऽपि ज्ञानक्रियाभेदात्सूत्रद्वनम् ।
जैसे कि - प्रारण अपान आदि का नियमन जीवन धारण के लिए होता है. अनियमन से आकुंचन आदि होता है, इससे प्रारणों में कोई भेद है या पहिले नहीं थे, ऐसा नहीं कह सकते। उसी प्रकार जगत सृष्टि की बात है । ज्ञान और क्रिया के भेद से दो सूत्रों में समझाया गया है ।
इतरव्यपदेशाद् हिताकरणादिदोषप्रसक्तिः | २|१॥२१॥
ब्रह्मणो जगत्कारणत्वे, इतरस्य जीवस्यापि ब्रह्मत्वात् तद् हितं कर्तव्यम् । तन्नकरोति इति तदकरणादि दोषप्रसक्तिः । “तत्सृष्टा तदेवानुप्राविशत् " अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवारिण' इति तस्यैव जीवव्यपदेशात् ।
ब्रह्म, यदि जगत् का कारण है तो, उसका जो दूसरा रूप जीवत्मा है, उसका हित करना ब्रह्म का कर्तव्य है, यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसके ऊपर इसका लाञ्छन है क्योंकि - "उसने सृष्टि कर उसमें प्रवेश किया" इस जीवत्मा के आत्मा प्रवेशकर नामरूप का प्रकाश करू" इत्यादि वाक्य जीव को उसी का स्थान बतलाते हैं ।
अधिकं तु भेदनिर्देशात् | २|१|२२||
तुशब्दः पक्ष व्यावर्त्तयति । यदि ब्रह्म तावन्मत्र भवेत् तदायं दोषः तत् पुनर्जीवाज्जगतश्चाधिकम् । कुतः ? भेदनिर्देशात् । दृष्टव्यादि वाक्येषु कर्मक व्यपदेशात् विज्ञानानंदव्यपदेशाद् वा । न हि संपूर्णोऽशस्य हितं नियमेन करोति । सर्वेन्द्रियव्यापाराभावप्रसंगात् । स्वलीलयैकं तु
करोत्येव ।
सूत्रस्थ तु शब्द, उपर्युक्त सूत्र में कहे गए पक्ष को निराकृत करता है । हते हैं कि यदि व्रह्म उतना मात्र ही होता तब उक्त दोष हो सकता था, जीव से अधिक जगत है, वह उसका विशाल रूप है । जगत जीव और ब्रह्म में बड़ी विभिन्नता है जैसा कि - " श्रात्मा बारे दृष्टव्य" इत्यादि वाक्य में