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कल्पनम् । तर्काप्रतिष्ठानादिति निराकृतमेव । न वास्मिन्नपि सूत्रे मिथ्या. त्वार्थः संभवति । एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानोपक्रमबाधात् प्रकरणविरोधश्च । त्रयाविरोधभवपरित्यागेर्न कमिदंसूत्रमन्यथा योजयन्नतिधृष्ट इत्यलं विस्तरेण ।
जो तामस बुद्धि वाले मिथ्यात्व का प्रतिपादन करते है, वे ब्रह्मवाद के प्रतिपादक श्रू तिसूत्रों को नष्ट करने पर उतारू हैं उन्हें तो तिलांजलि देने में ही सुख है। वे तो वध करने योग्य ऐसे चौर हैं जो घर में घुस कर विश्वसनीय बनकर चोरी करते हैं। अलोकिक तत्व पर तो कम से कम सूत्र के अनुसार ही निर्णय करना उचित है थोड़ी भी स्वतंत्र परिकल्पना करना ठीक नहीं। तकं की कोई प्रतिष्ठा नहीं इस नियम से ये भी निराकृत हो जाते हैं। इस सूत्र में मिथ्यार्थता कभी भी संभव नहीं है, ऐसा करने से "एक विज्ञानेन सर्वविज्ञान" वाले नियम वाक्य में बाधा होगी तथा प्रकरण से विरुद्धता होगी । अविरोध त्रय के भय का परित्याग करके इस एक सूत्र की अन्यथा योजना करना अतिधृष्टता हैं, इससे अधिक और क्या कहें। भावे चोपलब्धेः २।१।१५॥
भाव एव विद्यमान एव घटे घटोपलब्धिः । नाभावे चकारान्मृत्यकेत्येवश्रु तिः परिगृहीताः । वाङ मात्रण चोपलम्भे मिथ्यवात्र घटोप्यम्तीत्युक्त उपलभ्येत । इदंसूत्रं मिथ्यावादिना न ज्ञातमेव अतएव पाठान्तरकल्पन मिति ।
घट में घट का भाव होने से ही घटोपलब्धि होती है प्रभाव से नहीं। सूत्रस्थ चकार "मृत्यकेत्येवसत्यम्' श्रुति की ओर इंगित करता हुमा उक्त तथ्य की ही पुष्टि कर रहा है । "वाङमात्रेण" से यदि मिथ्या अर्थ लेंगे तो यह घट मिथ्या है यही कहना पड़ेगा ये सूत्र मिथ्यावाद का ज्ञापक नहीं है । ऐसा अर्थ करने के लिए पांठान्तर की कल्पना करनी पड़ेगी। सत्वाच्चावरस्य ।२।१।१६॥
प्रवरस्य प्रपंचस्य सत्वात् कालिकत्वात् ब्रह्मत्वम् । “सदेव सोन्येदमन मार्सीत्" "यदिद किंच तत्सत्यम् इत्याचक्षत' इति श्रुतेः ।
ये सारा अवर.प्रपंच सदव और कालिक होने से ब्रह्मस्वरूप है । "हे. सोम्य ! ये पहिले सत् ही था" ये जो कुछ भी है वह सत्य है ऐसा समझो" ऐसा श्रुति का ही प्रमाण है।