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२५१ शास्त्रों के अन्तः करण को दूषित करके दुराग्रह पूर्वक वाद विवाद करते हैं। यह शोभा की बात नहीं है । सबकुछ होने में समर्थ ब्रह्म के संबंध में ये विरोधी भाव हैं । निर्दोष ब्रह्म में, अपनी मति से संशयित भाव रखने, वाले, शास्त्रीय मर्यादा का भंग करने वाले, मंदमति महानुभाव, साधु पुरुषों से उपेंक्ष्य हे। प्रात्मनि चैवं विचित्राश्च हि । २।१।२८।। ___ सृष्टी देशकालापेक्षापि नास्ति, प्रात्मन्येव सृष्टत्वात् । देशकालसृष्टाप्या स्मन्येव साधिकरणस्य सृष्टत्वाच्च । बहिरन्तश्च जगत् सृष्टिी प्राह विशेषाभावेन, "अनन्तरोवाह्य" इति । विरोधाभावो विचित्रशक्तियुक्तत्वात् सर्वभवन समर्थत्वाच्च । . सृष्टि में देशकाल आदि की भी अपेक्षा नहीं होती, जैसे कि आन्तरिक स्वप्न सृष्टि में इनकी अपेक्षा नहीं होती जैसा कि स्वप्न सृष्टि का वर्णन प्राता है- “न तत्र रथा न रथ योगा न पंथानो भवंति अथ रथान रथ योगान् पथः सृजन्" इत्यादि । इसी प्रकार बाह्य सृष्टि में भी परमात्मा को देश कालादि को अपेक्षा नहीं होती, वाह्याभ्यंतर सृष्टि की एकता को ही "अनंतरोवाझ" इत्यादि वाक्य में बतलाया गया है। भगवान में विचित्र शक्ति और सबकुछ होने का सामर्थ्य है इसलिए, ऐसा होना असंभव नहीं है। स्वपक्ष दोषाच्च । २।१।२६।।
प्रधानवादिनोऽपि सर्वपरिणामसावयवत्वाऽनित्यस्वादिदोषो दुष्परिहरः। युक्तिमूलत्वाच्च तस्य । अचिन्त्यकल्पमायां प्रमाणाभावाच्च ।
प्रधान कारण वाद में भी सारे परिणाम सावयव और अनित्यता प्रादि दोषों वाले हैं क्या इनको अन्यथा किया जा सकता है ? ये मत तो युक्ति मूलक है, इसमें कोई युक्ति क्यों नहीं भिड़ाते ? विचारे करे भी क्या, अचिन्त्य कल्पना में उन्हे प्रमाण मिले भी कहाँ ? सर्वोपेता च तदर्शनात् ।२।१॥३०॥
सर्वशक्तिभिरुपेता उपगतः, कागत् सत्यादिगुणयुक्तश्च कुतः ? तद्दर्शनात, तथा बेदे दृश्यते "यः सर्वत्रः सर्वशक्तिः सर्वकर्ता, सर्वकामः" इत्यादि।