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द्वितीय अध्याय
द्वितीय पाद १. अधिकरण रचनानुपपत्तश्च नानुमानम् ।२।२।१।। ___ स्वतंत्रतया सर्वेवादा निराक्रियन्तेऽस्मिन्पादे। लोकानां भूर्भुवादीनां अचेतनेनकेवलेनप्रधानेन रचनानोपद्यच्चते, रचितत्वादेव न परिणामः । सर्वस्यसंश्लेष प्रसंगात्। अतश्चेतन कत्त का रचना नाचेतनेन प्रधानेन कर्त्त शक्या । तस्मात्कारणत्वेन प्रधानं नानुमंतव्यं, अन्यथोपपत्त्या बाधितमेवानुमानमिति चकारार्थः। ___ इस पाद में स्वतन्त्र रूप से समस्त वादों का निराकरण करते हैं । भूः भुव आदि लोक, केवल अचेतन प्रधान की रचना नहीं हो सकते यदि रचना हों भी तो, परिणाम नहीं हो सकते, यदि ये प्रधान के परिणाम होते तो सब परस्पर संश्लिष्ट होते । इसलिए यह रचने चेतन की है, अचेतन प्रधान में इसके रचने का सामर्थ्य नहीं है। इसलिए कारण रूप से प्रधान का अनुमान नहीं करना चाहिये यदि करेंगे तो अनुमान, उपपत्ति से बाधित हो जावेगा। प्रवृत्तश्च ।२।२।२॥
भुवनानि बिचार्य जनान् विचारयति । सर्वस्य तत्परिणामे प्रवृत्तिर्नोप५द्यते प्रधानस्य वा प्रथम प्रवृत्तिः । यद्यपि प्रधान कारणवादे फल पर्यन्तमंगीक्रियमाणे न किंचिद्रूषणम् । कृतिमात्रस्य प्रधानविषयत्वात् । तथापि वादिनप्रति लोकन्यायेन वक्तव्यम् । तत्रलोके चेतनाचेतनव्यवहारोऽस्ति, चेतनाश्चतुर्विधाः जीवाः सशरीरा अलौकिकाश्च । प्रन्ये अचेतनाः। तन्न्यायन विचारोऽत्र ति न किंचिद् विचारणीयम् ।।
भवनों का विचार कर अब जनों का विचार करते हैं। यदि सबको प्रधान का परिणाम मान ले तो उनमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती यदि होगी भी तो प्रधान की ओर ही अचेतन प्रवृत्ति होगी। यद्यपि प्रधान कारणवाद में, फल तक स्वीकारने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि प्रधान कृतिमात्र हो तो है। फिर भी वादी को लोक न्याय की दृष्टि से कुछ कहना है। लोक में