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"प्रार्षधर्मोपदेशंच धर्मशास्त्राविरोधिना, यस्तणानुसंधत्तं सधर्म वेदनेतरः" इतिस्मृतेः। सावधतकं परिहारेण निरवद्यस्तकः प्रतिपत्तव्यो भवतीतिचेत् एवमप्यविमोक्ष प्रसंगः । ब्रह्मवादिनो निदुष्टतर्क सद्भावेऽपि प्रकृतिबादिनस्तकस्य दोषाविमोक्ष प्रसंगः मूलनियमाभावाद् वैमत्यस्य विद्यमानस्वात् ।
वेद सम्मत अर्थ में, तर्क द्वारा समाधान करने की चेष्टा अनुचित है, क्योंकि तर्क का कोई महत्व नहीं माना जाता। अपनी बुद्धि से जो युक्ति प्रस्तुत की जाती हैं उसे ही तो तक कहते हैं। वह एक व्यक्ति की सूझ होती है, उसे और लोग तो स्वीकारते नहीं । ऋषियों के स्वतंत्र मति भेद से, वस्तु तो दो हो नहीं सकती उसका सही निर्णय करे भी कौन ? इसलिए तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। यही पूर्व पक्ष का परिहार है । यदि कहें कि-दूसरा ही अनुमान किया जायगा, तब तो हम भी दूसरा अनुमान कर सकते हैं, जिससे अप्रतिष्ठा दोष नहीं होगा, न कोई ये कह सकेगा कि तक की प्रतिष्ठा नहीं है । किन्तु शास्त्र व्यवहार की परपरा का उच्छेद हो जावेगा । स्मृति का वचन है कि-"ऋषियों के धर्मोपदेश यदि धर्म शास्त्र से अविरुद्ध हों, और वह तर्क से भी समाधित हो सके वही धर्म हैं, दूसरा कुछ नहीं ।" यदि कहें कि गलत तर्क के परिहार से सही तर्क की प्रतिपत्ति करने में क्या हानि है ? ऐसा करने में भी तर्क से छुटकारा नहीं मिल सकता, ब्रह्मवादियों के दोष रहित तकों के होते हुए भी, प्रकृतिवादियों के तर्क का दोष पीछे पड़ ही जाता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता क्योंकि-तर्क में मूल नियम पर तो विचार होता नहीं, वैमत्य की भावना ही बनी रहती है [अर्थात् खंडन करने का ही भाग्रह रहता है, इसलिए वस्तु का निर्णय कैसे संभव है ?] एतेन शिष्टा परिग्रहा अपि व्याख्याताः ॥२१॥१२॥
सांख्यामतस्य वैदिकप्रत्यासन्नत्वात् केषांचिच्छिष्टानां परिग्रहोऽप्यस्ति । अरणमायाकारणवादास्तु सर्वथा न शिष्टः परिगृह्यत इति तेषां तर्काः पूर्वोक्त न्यायेन सुतरामेव निरस्ता वेदितव्याः । ___ सांख्यामत वैदिकमत से अधिक मिलता जुलता है इसलिए कोई इसे शिष्टों के मत में ग्रहण करते हैं, पर जो इसे स्वीकारते हैं वे अणमायाकारण वादी ही पूर्ण रूप से शिष्टों में ग्राह्य नहीं हैं इस लिए उनकी मान्यता का क्या महत्व है ? उनके तर्क भी, उक्त विचारानुसार उपेक्ष्य हैं।