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इत्यादि दूसरी श्रुति में स्पष्टतः देवता पद अभिमानी रूप से वर्णन किया गया है ।
दृश्यते तु | २|१६||
परिहरति । तुशब्दः पक्षं व्यावर्त्तयति । दृश्यते हि कार्यकारणयोव रूप्यम् ॥ केशगोमयवृश्चिकादी चेतनादचेतनोत्पत्ति तदंशस्यैव निषेधः ।
निषेधे
तुल्यांशसम्पत्तिश्चेत् प्रकृतेऽपि सदशः ।
इस सूत्र में तु शब्द का प्रयोग करते हुए पूर्वपक्ष का निराकरण करते हुए परिहार करते हैं- कहते हैं कि कार्य कारण में वैरूप्यता प्रत्यक्ष देखी जाती है । जैसे शरीर से केश, गोबर से कोड़े इत्यादि, यदि चेतन से अचेतन की उत्पत्ति का निषेध करेंगे तो उसके अंश का भी निषेध मानना पड़ेगा । यदि तुल्यांश में ही संयोग की बात मानते हो तो प्रकृति में भी सदंश विद्यमान है । इसलिए तुम्हारी बात संगत नहीं है ।
प्रसदिति चेन्न प्रतिषेधमालत्वात् ||१७||
श्रत कारणत्वेनासक्ति इति चेन्न, प्रतिषेधार्थमेव वचनम् । कथमसतः सज्जायेतेति । कार्यस्यवा पूर्वविप्रतिषेधो ब्रह्मकारणत्वाय ।
यदि कहो कि श्रुति में कारण रूप से श्रसत् का भी उल्लेख है, सो वह केवल प्रतिषेध के लिए है, उसका तात्पर्य है कि असत् से सृष्टि कैसे हो सकती है ? ब्रह्म को कारण बतलाने के लिए कार्य का पूर्व विप्रतिषेष किया गया है ।
प्रपीतौ तद्वत् प्रसंगादसमंजसम् ||१८||
पूर्वपक्षमाह । प्रपीतिय: । कार्यस्य कारणलयं तद्वत् प्रसंग: । स्थौल्यसावयवत्वपरिच्छिन्नस्वाशुद्धत्वादिधर्मसम्बन्धावश्यकत्वादसमंजसम् ब्रह्मकाररण
वचनम् ।
पूर्वपक्ष कहता है कि कार्य का जब कारण में लय होता है तो फिर वही समस्या सामने आती है, स्थूल सावयव, परिच्छिन्न प्रशुद्ध सृष्टि, उस सूक्ष्म निरवयव, अपरिच्छिन्न शुद्ध ब्रह्म से कैसे लीन होती है ? यदि होती है तो परमात्मा उसके सम्बन्ध से दूषित होता है, इस प्रकार ब्रह्मकारण वाद में असमंजस उपस्थित होता है ।