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सांख्य स्मृति निराकरणेन योगस्मृतिरपि निराकृता दृष्टव्या योगस्य वैदिकत्वशंकया भेदेन निराकरणम् ।
सांख्य स्मृति के निराकरण से योगस्मृति भी निराकृत मान ली गई । योग तो वैदिक तत्व है ऐसा संशय होता है तो वह केवल प्रधान कारवाद मानने से निराकृत है ।
२ श्रधिकरण
न विलक्षणत्वादन्यस्य तथात्वं च शब्दात् |२| १|४||
-बाधकोऽयं तर्कः । अस्य जगतो विलक्षणत्वादचेतनत्वाच्चेतनं न कारगम् । विलक्षणत्वं च शब्दात् --''विज्ञातं चाविज्ञातं च" इति । प्रत्यक्षस्य भ्रान्तित्वं मन्यमानस्येदं वचनम् ॥
प्रायः यह तर्क बाधक होता है कि यह विलक्षण और अचेतन है, इसलिए इसका कारण चेतन नहीं हो सकता । जगत की विलक्षणता "विज्ञातं चाविज्ञातं च" इत्यादि वाक्यों में स्पष्ट कही गई है । प्रत्यक्ष में भ्रान्ति उत्पन्न करने वाला यह वाक्य है ।
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अभिमानिव्यपदेशस्तु विशेषानुगतिभ्याम् | २|१|शा
“मृदब्रवीत् प्रापोऽब्रुवन्; तत्तेज ऐक्षत्, तेहवाचमूचुस्त्वं न उद्गायेत" एवमादिश्रुतिभिभूतेन्द्रियाणां चेतनत्वं प्रतिपाद्यत इत्याशंक्य निराकरोति तु शब्देन तत्तदभिमानिन्य एव देवतास्तथा वदंति । कुतः ? वेद एवं "विज्ञातं चाविज्ञातं च" इति चेतनाचेतन विशेषोक्तः । अनुगतत्वाच्च । "अग्निर्वाग्भूत्वा मुख प्राविशद्" इत्येवमादिविशेषानुगतिभ्यामभिमानित्वा मित्यर्थः । देवता पदं च श्रुत्यंतरे ।
" मिट्टी बोलती है, जल बोलते हैं, तेज देखता है" इत्यादि श्रुतियों से क्या भूतेन्द्रियों की चेतनता का प्रतिपादन किया गया है ? इस श्राशंका का निराकरण करते हैं कि उनके अभिमानी देवता ही बोलते हैं । वेद से ही उसका निर्णय होता है- "विज्ञातं चाविज्ञातंम्" इत्यादि में चेतन अचेतन दोनों का उल्लेख किया गया है । अनुगत भाव भी बतलाया गया है-' श्रग्नि वाणी होकर मुख में प्रविष्ट हुआ" इत्यादि में अनुगति कही गयी है, इससे भी अभिमानित्व की बात निश्चित होती है । "हंताहं देवतास्तिस्रो "