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न तु दृश्टान्त भावात् ।२।१॥ __ नेवास्मदीयेदर्शने किंचिदसामंजस्यमस्तीति तु शब्देन परिहरति । स्व. पक्षस्थापनसरपक्षनिराकरण गोविद्यमानत्वान्नतुवचनम् । तत उत्पन्नस्थ तत्र लये न कार्यावस्था धर्मसंबंधः शरावरुचकादिषु प्रसिद्धः। भवतां परं न दृष्टान्तोऽस्ति ।
हमारे दर्शन में थोड़ा भी असामंजस्य नहीं है अपने पक्ष के स्थापन पौर पर पक्ष के निराकरण का भाव जब मन में रहता है तो सही बात नहीं निकलती । उत्पन्न वस्तु जब अपने कारण में लय होती है तब कार्यावस्था की विशेषताओं का उससे कोई संबंध नहीं रहता, मिट्टी के प्याले और सुवर्ण के आभूषण प्रादि में ये बात प्रत्यक्ष देखी जा सकती है । हमारी दृष्टि में ये दृष्टान्त परिलक्षित होते हैं, क्या आपकी समझ में नहीं पाते? स्वपक्ष दोषाच्च ।स१॥१०॥ __ स्वपचे चैते प्रतिवादिनः साधारपादोषाः । निविशेषात् प्रधानात् सविशेषस्यकार्यता, तस्योत्पत्तिः, लये तद्धर्म संबंधः । असद् कार्यवाद प्रसंगः । तथैव कार्योत्पत्ती कारणाभावेन नियमाभावः । भावे वा मुक्तानामपि पुनबन्ध प्रसंगः।
ये प्रतिवादी जो दोष हमारे मत में दिखला रहे हैं ये दोष इनके अपने मत में साधारण रूप से विद्यमान हैं । निविशेष प्रधान से सविशेष कार्य का होना, कार्य की उत्पत्ति और लय में उसके धर्म का संबंध, असद् से कार्य की उत्पत्ति कैसे संभव है ? कारण का तो प्रभाव ही रहेगा, कारण के बिना कार्य होने का नियम कहाँ है ? यदि ऐसा हो भी तो जो मुक्त हो चुके हैं वे पुनः बंधन में पाजावेंगे । इत्यादि। तर्काप्रतिष्ठानादप्यन्यथानुमेयमितिचेदेवमप्यविमोक्षप्रसंगः ॥२१॥
वेदोक्त ऽर्थे शुष्कतर्केण प्रत्यवस्थानमयुक्त, तर्कस्याप्रतिष्ठानात् । तौ नाम स्वोन्प्रक्षिता युक्तिः । सा एकोक्ता नान्यरंगीक्रियत। स्वतंत्राणा मतिभेदाद् वस्तुनो द्वरूप्यासंभवानियामकाभावाच्च, अतो न तर्कस्थ प्रतिष्ठा । पूर्वपक्षिणः परिहारः । अप्यन्यथाऽनुमेय मिति चेत् । एवमपि अन्यथा वयमनुमास्यामहे । यथा नाप्रतिष्ठादोषो भविष्यति । नहि कोऽपि तर्कः प्रतिष्ठितो नास्तीति वक्तुं शक्यते । व्यवहारोच्छेद प्रसंगात् ।