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है । "प्रात्मानम्" से वैराग्य की विशेषता बतलाई गई है । “यस्यानुवृति" इत्यादि नौ श्लोकों से ब्रह्म की स्तुति और उसके विज्ञान का उल्लेख किया गया है। "सवाऽयमात्मा" इत्यादि से पुनः इसी तत्त्व का स्पष्ट रूप से उपदेश किया गया है । "अभयं वै जनक प्राप्तोऽसि" से प्रकरण की समाप्ति की गई है । काण्व शाखा में भी कुछ पाठान्तर से यही वर्णन किया गया है । इस प्रकार विचारने से यह प्रकरण जीव परक ही समझ में प्राता है।
अभिधीयते, ब्रह्म व प्रकरणार्थः, सुषुप्तावुत्क्रमणे च जीवब्रह्मणो | देन व्यपदेशात् । अाकाशवद् ब्रह्म निर्धार एव युक्तः ।
उक्त मत पर सूत्र कार कहते हैं कि--यह प्रकरण ब्रह्म परक ही है, इसमें सुषुप्ति और उत्क्रमण के वर्णन करते हुए जीव और ब्रह्म का स्पष्ट भेद बतलाया गया है । इसे आकाश की तरह निर्धारक भाव से ब्रह्म का प्रकरण मानना ही समीचीन होगा। पत्यादि शब्देभ्यः ॥१॥३॥४३॥
किं च, सर्वस्यवशीत्यादि शब्देभ्यः स्पष्टमेव ब्रह्म प्रकरणमिति ।
अधिक क्या “सर्वस्यवशी" इत्यादि प्राधिपत्य सूचक शब्दों के प्रयोग से, स्पष्ट ही यह ब्रह्म प्रकरण ही निश्चित होता है ।
प्रथम अध्याय तृतीय पाद समाप्त
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