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तदधीनत्वादर्थवत् ।१।४।३॥
• ननु धर्मित्वे परत्वमनुपपन्नम्, अन्यथा पूर्वोक्तो दोप, इत्यत आहअभेदेऽपि कृपायास्तदधीनत्वात् परत्वम् तत्र दृष्टान्तः, अर्थवत्, अर्थः पुरुषार्थः फलं, तद् वत् । “ब्रह्मविद् प्राप्नोति परम्" इत्यथं एकस्यैव ब्रह्मणः सच्चिद्रूपेण नियत्वमानन्दरूपेण फलत्वमिति । तथैवाक्षर पुरुषोत्तम विभागोऽपि । स्वधर्मा अपि स्वाधीनाः । स्वयमपि स्वाधीन इति । तथा कृपा दृष्टि: साधनमानद रूपा फल मिति । अथवा अव्यक्त सच्चिद रूपमक्षरमेवास्तु तस्मिन् सति विज्ञानस्य विषयाधीनत्वमर्थः । एवेनान्येऽपि सर्वसंप्लववादिनो निराकृता वेदितव्यः । असंबद्धा पिलापाच्च । "अनेक रूढि शब्दानां वाच्यं ब्रह्म व नापरम्, शक्तितश्चेत तथा ब्रू युस्ते सन्मार्गाद् बहिष्कृताः । तस्मादिन्द्रियेम्यः परवाक्ये नानुमानं किंचिदस्ति ।
परमात्मा का धर्मित्व मानने से परत्व नहीं सिद्ध हो सकता अन्य पूर्वोक्त दोप घटित होगा। इस पर कहते हैं कि--धमित्व और परत्व को एक मानने में कोई अन्तर नहीं प्राता क्यों कि-परमात्मा की कृपा, उसके अधीन ही तो है, इसलिए कृपा को भी पर कहते हैं जैसे कि--पुरुपार्थ अर्थात् फल (मोक्ष) और परमात्मा की एकता मानी गई है । "ब्रह्म वेत्ता परमात्मा को प्राप्त करता है" इस वाक्य में--एक ही ब्रह्म, सच्चिद् रूप से विषयत्व, तथा प्रानंद रूपसे फलत्व रूप से दिखलाया गया है । ऐसा ही अक्षर और पुरुषो का भेद भी है । परमात्मा की अपनी विशेषतायें उनके अधीन ही. होती हैं, वह स्वयं तो स्वतंत्र हैं ही । इसी प्रकार उनकी कृपा दृष्टि भी, साधन और साध्य दोनों है, वह साधन होते हुए भी पानंद रूपा, फल है। अथवा यों समझे कि अव्यक्त, सच्चिद् अक्षर ही है, इस स्थिति में बुद्धि की विपयाधीनता ही फल है । इस विचार प्रणाली से, अन्य सर्व विप्लववादी भी निराकृत मानने चाहिए अनेक रूढिशब्द, परमात्मा वाची होते हैं, उनका दूसरा अर्थ नहीं कर सकते । यदि जबरन उनका दूसरा अर्थ करने की चेष्टा करते हैं तो वो सन्मार्ग से बहिकृत अर्थ होगा। इसलिए "इन्द्रियेस्त्र पर" वाक्य में, सांख्यमत सम्मत अनुमान नहीं हो सकता।