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आनन्द प्राप्त होता है" इत्यादि हजारों असंदिग्ध श्रुतियाँ ब्रह्म के स्वरूप और सारे कार्यों को उसके अंश रूप से प्रतिपादन करती हैं। इसी यह वाक्य भी परमात्म वाची है यही मानना उचित है । सारा जागतिक व्यवहार तन्मूलक है, ऐसा पहिले भी कह चुके । विषयों के स्पर्श में उसी की विज्ञातृता है । इस प्रकार सब कुछ संगत हो जाता है। वाक्य परमात्मा में ही अन्वित है, इसे जीव परक मान कर प्रकृतिवाद की पुष्टि नहीं
कर सकते ।
प्रतिज्ञासिद्ध लिंगमाश्मरथ्यः | १|४|२०||
नियत धर्मवादिनामपि मतेन प्रकृते सिद्धान्तुं वक्तुं पक्षान्तराव्याह । तत्र जीवो नाम स्वस्य भोग निष्पत्त्यर्थं स्वांशो भगवताकृतो विस्फुलिंग वदित्याश्मरथ्यो मन्यते । अनादि सिद्ध एव जीव श्चैतन्य मात्रं शरीरादि संधाते प्रविष्ट इति चिति तन्मात्रेण प्रवेशे च मोक्ष इति च श्रोडुलोमिराचार्यः । काशकृत्स्नस्तु प्रासक्तया विषय भोक्त रूपं भगवत एव जीव इति तेऽपि स्वमतानु सारेणात्र परिहारति । तत्र पुत्रादि प्रिय सह वचनाज्जीव प्रकरण मेवैतदित्याशंक्य जीवपक्रमस्यान्यत् प्रयोजनमित्याह । प्रतिज्ञासिद्धेरिति षष्ठी । तस्या लिंगमंशत्वाज्जीवस्य तद भेदेनोपक्रमः प्रतिज्ञासिद्वेलिंगं भवति । एक विज्ञानेन सर्व विज्ञानं प्रतिज्ञा । तस्यैवाग्रे व्युत्पाद्यमान त्वात् तस्या एतत् साधकम् । यथा जीवो भगवानेवं जड इति । एव माश्रयो मन्यते । श्रोतव्यादि विषयस्तु भगवानेव । तस्मान्नियत धर्म जीव वादेऽपि न जीवोपक्रमोदोषः ।
जीव वाद में नियम धर्म मानने वालों के मत से भी अपने सिद्धान्त की पुष्टि पक्षान्तर रूप से प्रस्तुत करते हैं । ब्रह्म वाद में एक देशीय अनेक वाद हैं । भगवान स्वयं अपने अंश जीव से भोग प्राप्त करने के लिए ही मग्नि की चिनगारियों की तरह विभिन्न रूप धारण करते हैं, ऐसी प्राश्मरथ्य की मान्यता है । श्रोडुलोमि श्राचार्य का कथन है कि -- अनादिकाल से चैतन्य मात्र जीव शरीर श्रादि संघातों में प्रविष्ट होता आया है, वही चैतन्य रूप जब अपने श्रंशी परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है तो वह मुक्त हो जाता है। कासकृत्स्न कहते हैं कि मासक्ति से, विषय भोक्ता, भगवान ही, जीव हैं। ये सभी श्राचार्य अपने-अपने मतानुसार प्रकृतिवाद का परिहार कर रहे हैं ।