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है" इत्यादि । इस प्रकार प्रतिज्ञा और दृष्टान्त से ये बात अबाध्य हो जाती है । समवायि कारण के ज्ञान से कर्म का परिज्ञान हो जाता है । प्रतिज्ञा
और दृष्टान्त दोनों के द्वारा ही सही निर्णन होता है अन्यथा प्रौपचारिक बात ही रह जाती है । जैसे कि-वाक्य के उपक्रम और उपसंहार दोनों से तत्व का सही निर्णय होता है। यदि केवल प्रतिज्ञा मात्र से विचार करें तो अदृष्टा द्वारा भी सृष्टि की बात सिद्ध हो सकती है । और यदि केवल दृष्टान्त से विचार करें तो अनुमान ही अनुमान हो जायगा, यथार्थता न होगी और ऐसा होने से सभी व्यवहार समान हैं, वैसी ही सृष्टि भी है ऐसा निर्णय हो जायेगा, फिर ब्रह्म को समवायिकारण नहीं कह सकते । दोनों के आधार पर निर्णय करने पर प्रतिज्ञा की पुष्टि दृष्टान्त से होगी और समवायी भाव की सिद्धि हो जायेगी।
कार्य कारण यो भेदाभेद मत निराकरणाय पिण्डमणिनरव निकृन्तन अहणम् । तथा सति यत्र क्वचिद् भगवान् ज्ञातः सर्वत्र ज्ञातो भवति, सर्व च ज्ञातं भवति इति । सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति निराकरणाय च "वाचारम्भणं विकारो नाम घेयम्" इति । अलीकत्व निराकरणाय च "मृत्तिकेत्येव सत्यम्" इति । ब्रह्मत्वेनैव जगतः सत्यत्वं, नान्यति । सामान्य लक्षण प्रत्यासत्ति निराकरणं च स्पष्ट मेवाने त्रीणि रूपाणीत्यत्र करिष्यति । अतो ब्रह्म रूपेण सत्य जगतो ब्रह्म व समवायिका रणम् । देहात्म बुद्धिस्तु सत्यां विकार बुद्धी दोषः । श्रुति सामर्थ्य प्रमाणमित्युक्त । तस्माद् ब्रह्म व समवायिकारणं न प्रकृतिः।
कार्य और कारण में न अत्यंत भेद है न अत्यंत प्रभेद इस बात को बतलाने के लिए पिण्ड, मणि नरवनिकृन्तन प्रादि दृष्टान्त दिये गए हैं । कार्य के ऐसे अवस्था विशेष रूप के ज्ञात हो जाने पर, जहाँ कहीं भी कार्य में भगवान का सर्वत्र प्राभास होने लगता है, और सारा रहस्य खुल जाता है सब कुछ परमात्मा से अभिन्न प्रतीत होने लगता है। सामान्य लक्षण को निराकरण करते हैं कि -- "वाचारम्भणं विकारो नाम घेयम्" तथा अलीकत्व का निराकरण करते हैं "मृत्तिकेव सत्यम्" । जगत् का ब्रह्मत्व स्वीकारने पर ही जगत की सत्यता वाली बात बन सकती है, अन्यथा नहीं। सामान्य लक्षण के निराकरण के लिए ही पागे स्पष्ट रूप से-"त्रीणि रूपाणि" इत्यादि वाक्य कहा गया । ब्रह्म रूप होने से जगत सत्य है इसलिए