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ब्रह्म ही जगत का समवायिकारण है। विकार बुद्धि के कारण, देहात्म बुद्धि हो जाती है । श्रुति सामर्थ्य से ही जो प्रमाण दिये गए उससे ब्रह्म ही समवायिकारण निश्चित हीता है, प्रकृति नहीं ।
अभिध्योपदेशाच्च ।१।४।२४॥
लिंगान्तर माह । 'सोऽकामयत बहुस्यां प्रजायेयं" इति कामनं तस्याभिध्यानं । प्राप्त कामत्वान्न कामना। तदभिध्यानं सृष्टावुपदिष्यते। बहु स्यामिति स्वस्यैव बहुरूपत्वामि ध्यानेन सृष्टं स्वयमेव भवति । सुवर्णस्यानेक रूपत्वं सुवणं प्रकृतिकत्व एव । अध्यासाभावाद् गौणत्वापत्तेश्च । नहिं मुख्यं बहु भवनं योगिनां संभवति । सर्व भवन् सामर्थ्यान्मुख्ये संभवति गोणकल्पनाया अन्याय्यत्वात् । चकारात् “इदं सर्व यदयमात्मा" इति कार्यस्य ब्रह्मत्व श्रु तिब्रह्म प्रकृतित्वे संभवति, नान्यथा । अथवा "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शांत उपासीत" इति तस्य जगद् रूपत्वेनभिध्यानमु पदिश्यते । तद् ब्रह्म समवायित्वे घटत, इति । चकारा देवत्वेन पृथक्त्वेन "बहुधा विश्वतो मुखम्" इति ।
"उसने कामना की बहुत हो जाऊँ" यह कामना ब्रह्म की अभिध्या है, वह प्राप्त काम हैं इसलिए इसे कामना नहीं कहते । ये अभिध्या सृष्टि संबंधी है । बहुस्यां में स्वयं ही बहुत रूपों में होने का ध्यान कर स्वयं ही वे सृष्ट हो गए। जैसे कि सुवर्ण के प्राभूषणादि अनेक रूप होते हैं उनमें सुवर्ण की प्रकृति रहती हैं। वैसे ही ब्रह्म की प्रकृति जगत में है । गौण रूप से जैसे योगी लोग यौगिक कायव्यूह की रचना करते हैं, वो बात परमात्मा के संबंध में नहीं कही जा सकती, क्यों कि- परमात्मा का देहाध्यास नहीं होता । योगी लोग मुख्य रूप से अनेक नहीं हो सकते । सर्वभवन्सामर्थ्य होने से परमात्मा में मुख्य रूप से ही बहुरूपता है, उनके संबंध में गौण कल्पना करना अन्याय है। "इदं सर्वयदयमात्मा" वाक्य में जो कहा गया है वह तभी सही हो सकती है जब कि कार्य का ब्रह्मत्व स्वीकारा जावे । “सर्व खल्विदं ब्रह्म" इत्यादि में परमात्मा की जगत् रूप से अभिध्या बतलाई गई है। इससे ब्रह्म का समवायि होना निश्चित होता है । "बहुधा विश्वतो मुखम्" इत्यादि में परमात्मा की भिन्नाभिन्नता बतगाई गई है।