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में भिन्नता नहीं होती, समवायि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है । बाकी और सब कारण भगर्वान् ही हैं । समवायि मोर निमित्त कारण में भेद अपेक्षित भी है। धर्म शास्त्र का निर्णय कर्म के संबंध में श्रुति और स्मृति दोनों से होता है, ऐसे ही ब्रह्मवाद में भी स्मृति सम्मत प्रकृति को समवायिकारण मानना चाहिए और ब्रह्म को निमित्त कारण [प्रत्येक कार्य में समवायि, असमवायि और निमित्त तीन कारण होते हैं, जैसे कि घड़ा के निर्माण में मिट्टी, समवायिकारण, डंडा चक्का मादि प्रसमवायिकारण तथा कुम्हार निमित्त कारण होता है। समवायिकारण मिट्टी और कार्य घड़े में वस्तुतः कोई भेद नहीं होता, इसी प्रकार इस पांच भौतिक जगत और प्रकृति में साम्य है इसलिए जगत रूपी कार्य में वही समवायिकारण हो सकती है ब्रह्म तो चिद् रूप है, वह कैसे समवायि कारण होगा? उसमें और जगत में तो बड़ा भेद है।
इत्येवं प्राप्ते उच्यते-प्रकृतिश्च । निमित्तकारणम्, समवायिकारणं च ब्रह्मव । प्रकृतिपद प्रयोगात् स्मृति सिद्ध तृतीय सर्व धर्मोपदेशः । चकाराद् यत्रेत्यादि सर्वसंग्रहः । कुत एतद् ? प्रतिज्ञा दृष्टान्तानुपरोधात् । प्रतिज्ञा, "अपि वा तमादेशमप्राक्षो येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतं भवत्यविज्ञातं विज्ञातं भवतीति"। दृष्टान्तो-"यमैकेन मृत् पिण्डेन सर्व मृण्मयं विज्ञातं स्यात्" इत्यादि । प्रतिज्ञा दृष्टान्तयोरनुपरोधोऽबाधनं तस्मात् । समवायि कारण ज्ञाने हि कार्य ज्ञानम् । उभयोग्रहणमुपचार व्यावृत्यर्थम् । उपक्रमोप संहारवत् । प्रतिज्ञा मात्रस्वे भदृष्टट्टारापि भवेत् । दृष्टान्तमात्रत्वे त्वनुमान विधया स्यात् तथा सति सर्व समान धर्मवद् ब्रह्म स्यान्न समवायिकारणम् । उभयो ग्रहणे तु प्रतिज्ञाया दृष्टमेव द्वारमिति समवायित्व सिद्धिः ।
उक्त मत पर कहते हैं कि प्रकृति का कारण भी ब्रह्म ही है । निमित्त और समवायि दोनों कारण ब्रह्म ही है। प्रकृति शब्द, असमवायिकारण रूप जागतिक सभी प्राकृत पदार्थों का द्योतक है । "यत्र" इत्यादि से इसका व्यापक रूप वर्णन किया गया है । प्रतिज्ञा और दृष्टान्त से इस बात की पुष्टि हो जाती है। प्रतिज्ञा जैसे---"उसको समझ कर अश्रु त वस्तु श्रुत, प्रमत वस्तु मत तथा प्रविज्ञात हो जाती है" दृष्टान्त-"जैसे कि एक मिट्टी के ढेले को देखकर समस्त मिट्टी के बने पदार्थों का ज्ञान हो जाता