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पुत्र नादि प्रिय जानों के साहचर्य की चर्चा है अतः ये जीव प्रकरण ही है ऐसा संशय करते हुए, परिहार करते हैं कि - प्रकरण में जीवोपक्रम है, वह विशेष प्रयोजन से है । वह प्रतिज्ञा की सिद्धि के लिए है । यह जीव उस परमात्मा का ही अंश है अतः वह अभिन्न है, लिंग प्रायः प्रतिज्ञा सिद्धि के लिए ही होता है एक को जानने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है, यही वेदांत दर्शन की प्रतिज्ञा है । उस परमात्मा का ही मागे प्रतिपादन किया गया है उपक्रम उसी का साधक मात्र है, इसमें बतलाया गया है कि जैसा जीव और भगवान् है वैसा ही जड भी है । यही श्राश्मरथ्य की मान्यता है | श्रोतव्य आदि का विषय तो भगवान् ही है । इस प्रकार नियत धर्मं जीव वाद के अनुसार भी जीवोपक्रम में कोई दोष नहीं है ।
उत्क्रमिष्यत एवम्भादित्यौडुलोमिः ||8|२१||
लिंग मित्यनुवते । यदत्र जीवोपक्रमेण भगवतः श्रवणादिकमुक्त', तत् संसार भावादुत्क्रमिष्यतो जीवस्य लिंगम् । मुक्तो जीवो भगवानेन भविष्यतीति ज्ञापकम् । अन्यथा सैव कथं अमृतो भवेत् । इति शब्दो हेतौ । स्त्रिया विश्वासार्थं गौणप्रिय वैराग्यार्थं च जीवोपक्रमः कर्त्तव्य एवेति श्रोडुलोमि राचार्यों मन्यते । तस्मद् भिन्न जीव पक्षोऽपि नात्र दूषणम् ।
इस प्रकरण में जीवोपक्रम से भगवान के श्रवण आदि की जो चर्चा है वह संसार भाव से उठे हुए जीव से संबंधित है। मुक्त जीव भगवान ही हो जाता है, इसकी ज्ञापक है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो वही जीव अमृत कैसे हो सकता है ? स्त्री को विश्वास दिलाने और गोरण प्रिय वस्तु से वैराग्य भाव बतलाने के लिए जीवोपक्रम करना आवश्यक था, ऐसी प्रोडुलोमि श्राचार्य की मान्यता है । इस प्रकार भिन्न जीव पक्ष से भी दोष नहीं होता |
श्रवस्थितेरिति काशकृत्स्नः । १।४ २२||
लिगमित्येव । भगवत एवावस्था जीव इति । श्रतः संसार दशा यामपि जीवो ब्रह्म ेति नात्रोत्क्रमणमुपचारो वा । श्रन्य थाकथपात्मस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति । न ह्यन्यस्य सवं प्रियं भवति । मोक्षस्तुज्ञानमेव उत्तरत्र कर्त्तव्या भावात् । अवस्था व्यवसायात् सिद्धान्ताद् विशेषः इति शब्दे