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नेतावदरे खल्वमृतत्वमित्युष संहारो हेतुरस्य पक्षस्येति काशकृत्स्नो मन्यते । तस्माज्जीवोपक्रमो, भगवत एवावस्था विशेषो जीव इत्यस्य लिंगम् । तस्मान्मत्रेयी ब्राह्मणे नापि जीव द्वारा प्रकृति कारणवा दासिद्धिरिति सिद्धम् ।
जीव, भगवान् की ही एक अवस्था है, संसार दशा में भी जीव, ब्रह्म ही है, इसलिए जीवोपक्रम प्रौपचारिक मात्र है । यदि ऐसा नहीं हैं तो, आत्मा की कामना से सब प्रिय हों, यह कैसे संभव है ? परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य के तो सब प्रिय नहीं हो सकते । ज्ञान दशा ही मोक्ष है, उसके बाद कोई कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता। व्यवसाय से अवस्था विशेष होती है, यही सिद्धान्त है । प्रकरण में किया गया इति का प्रयोग बतलाता है कि वह परमात्मा इतना ही नहीं है, उसका अमृतत्व सिद्ध करते हुए उपसंहार किया गया है, ऐसा काशकृत्स्न का मत है । इससे यही मानना चाहिए कि जीवोपक्रम भगवान की ही अवस्था विशेष है जो कि जीव नाम से कही गई है । इस मैत्रेयी ब्राह्मण से भी जीव द्वारा प्रकृति का ग वाद की सिद्धि नहीं होती। ८ प्रकृतिश्च प्रतिज्ञाऽधिकरणःप्रकृतिश्च प्रतिज्ञा दृष्टान्तानुपरोधात् ।१॥५॥२३॥
एवं प्रकृति कारण वाद निराकरणेन ब्रह्मरण एव कारणत्वे सिवेऽप्यर्द्धज रतीयतयोभयसंस्थापनपक्ष परिहर्तु अधिकरणमारभते ।
इस प्रकार प्रकृति कारणवाद के निराकरण से ब्रह्म कारण वाद के सिद्ध होने पर भी अधपके दोनों पक्षों पर पलने वाले मत का परिहार करने के लिए मधिकरण का प्रारंभ करते है। ___ ननु ब्रह्म कारणतां न निराकुर्यः श्रु ति सिद्धत्वात् । किन्तुसमवायिकारणं प्रकृति रेव । कार्य कारणयोरवैलक्षण्यात् । समवायिकारणानुरोधि हि कार्यम्, अन्यत् सर्व भगवानस्तु । अपेक्ष्यते च समवायि निमित्तयोर्भेदः । कर्मण्यपि श्रुतिस्मृति समवायो धर्म। एवं ब्रह्मयादेऽपि स्मृत्युक्ता प्रकृतिः समवायिकारणम् । ब्रह्मनिमित्तकारणम् । ___ हम ब्रह्म कारणता का निराकरण नहीं करते क्यों कि वह तो अति सिद्ध बात है, किन्तु समवायि कारण तो प्रकृति ही है । क्यों कि कार्य कारण