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लीयत इति । " समथेति" द्वयेनाह । मध्ये " स एव नातिरिक्त' विशति" इति "यथा सेन्धवधनं" इत्यनेन प्राह । श्राधेयत्वेन तावन्मात्रता निराकररणामाह "न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति" इति । कार्यातिरिक्त रूपं कथयितुं न शक्यत इति तत्र विशेषाकांक्षायां प्रतिरिक्ता कथने वंचकत्वमाशंक्य तत्परिहारायाह "स होवाच" इति । "अविनाशो" इत्यनेन कार्य वैलक्षण्यं सिद्धवत् कारेणोक्तवा विषय संबंधेन संसारमाह “मात्रा संसर्गेस्त्वस्य भवति" इति । विशेषतस्त्वकथने हेतुमाह " यद् छतम्" इत्यादिना यावत् समाप्ति । चक्षू रूपं एव पश्यति नात्मानं । ननुरूपमप्यात्मेति चेत् तत्रापश्यन् वै तद् दृष्टव्यत्त्वेन न पश्यति । न हि दृष्टं स्वरूपं दृश्य ज्ञानेन ज्ञातं भवति, तद् रूपत्वात् । एवं द्रष्ट्र दृश्य व्यवहारे - प्रज्ञानावस्थायां विशेषतस्तज्ज्ञानमशक्यमुक्तवा ज्ञानोत्तरं कर्यकर्त भाव एव नास्ति इत्याह " तत्रवा अन्यदिव स्मात् " इत्यादिना । इदमेव हि ज्ञानममृतत्वमिति । तत्रादिमध्यावसानेषु जीव प्रकरणमित्येव प्रतिभाति । तस्य ब्रह्मता जगत कर्त्त त्वम् इत्युत्कर्ष: । नतु तस्मादन्यत् ब्रह्मत्वेन वक्तुं युक्तम् । अर्थ विरोधाच्च । तस्माद् वेदे सृष्टि वाक्यानां एतम्मायायेन श्रन्यार्थस्वान ब्रह्म जगत्कारणमिति प्रकृतिवाद एव युक्तः ।
उसके बाद, इस कोलाहल पूर्ण जगत में प्रात्म ज्ञान कैसे संभव है ? इस माकांक्षा पर दुन्दुभु प्रादि तीन दृष्टान्त प्रस्तुत किये गए हैं। जैसे कि - वाह्याभ्यांतर भेद से होने वाले महा कोलाहल में भी दुन्दुभि बजाने का शब्द श्रवण होता है, उसमें दुन्दुभि दर्शन घोर दुन्दुभि नाद दर्शन दोनों ही कारण होते हैं। अनुमान द्वारा चित्त में उसके प्रविष्ट होने पर उस नाद का साक्षात्कार होता है, उसी प्रकार मात्मा बोधक कार्यों के अनुसंधान से उस आत्मा का साक्षात्कार होता है । उसका सर्वस्व कैसे संभव है ? इस आकांक्षा पर " स यथेति" इत्यादि दो वाक्य कहे गए उसके मध्य में "स एव नातिरिक्त विशति यथा संन्धवधनं" इत्यादि वाक्य से समस्त नाम रूपात्मक जगत को उसी से उत्पन्न और उसी में लीन कहा गया है। " न प्रत्य संज्ञास्ति" से उसके उतने मात्र का निराकरण ग्राधेयत्व भाव से किया गया है । कार्य के प्रतिरिक्त उसके रूप को कहना कठिन है, इस प्राकांक्षा पर, उससे अतिरिक्त रूप को कहना वंचकता है, इत संशय का " स होवाच" इत्यादि से निराकरण करते हैं । "अविनाशी" इत्यादि से, कार्य वैलक्षण्य