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२२६ अपने मतानुसार परिहार करके अब धर्म भीमांसा के मत से परिहार करते हैं । निद्रा और जागरण जीव के ही धर्म हैं । चक्ष रादि इन्द्रियो के लय का आधार प्राण ही है। जो लोग जीव मुख्य प्राण के धर्म मानते उनके मत से भी ये धर्म, ब्रह्म बोधक ही सिद्ध होते हैं । सांख्य मत सिद्धि तो फिर भी नहीं होती। सूत्र स्वतु शब्द बतलाता है कि इस मत के संबंध में जो सांख्य वादियों का भेद हैं जैमिनि के मतानुसार उसका निराकरण तो अवश्य ही करना चाहिए ब्रह्म प्राप्ति के लिए ही, जीव का प्रति दिन लय और उद् गम होता है। निद्रा की अवस्था मृत्यु से भिन्न है इस भाव को दिखलाने के लिए ही प्राण शब्द का प्रयोग किया गया है, वह भी माश्रय ब्रह्म का ही वाचक है । यदि प्रश्न करें कि ये कैसे जाना? उसका उत्तर देते हैं कि-उपक्रम और उपसंहार से ही ऐसा निश्चित होता है। "यो बालाके ! एतेषां पुरुषाणां" इस उपक्रम में मुख्य ब्रह्म का ही निर्देश किया गया है। उसी के ज्ञान से प्रासुर प्रवृत्ति का जय होता है तथा समस्त भूतों से श्रेष्ठता, स्वाराज्य और आधिपत्य रूपी फलावाप्ति होती है। ये बातें जीव और मुख्य प्राण में संभव नहीं हैं । तथा प्रश्न और व्याख्यान से भी ऐसा ही निर्णय होता है । "क्वष एतद् बालाके ! पुरुषोऽयशिष्ट" इस प्रश्न में ज्ञात जीव के अज्ञात अधिकरण संबंधी जिज्ञासा की गई है" यत्रैष एतद् बालाके ! “से उसका व्याख्यान किया ग । है । इसमें कहा गया है, कि नाडी ज्ञेय नहीं है ब्रह्म ही ज्ञय है । यदि पूछे कि ये कैसे समझा कि-नाडी से भिन्न परमात्मा को ज्ञेय कहा गया है ? उसके उत्तर में कहते हैं कि-वाज सनेयी की एक शाखा के दृप्त बालाकि ब्राह्मण में-“सहो वाच" इत्यादि में स्पष्ट रूप से हृदय के दहराकाश में ही जीव के लय की बात कही गई है, “सता सौम्य तदा संपन्नो भवति" और "स्वं ह्यपीतो भवति" में भी यही कहा गय" है । इस प्रकार जीव और मुख्य प्राण शब्द माधार भूत ब्रह्म के ज्ञापक ही कहे गये हैं । इसमें प्रकृतिवाद मानना प्रसंगत है । ७ वाक्यान्वयाधिकरण :--
वाक्यान्वयात् ।।४।१६॥
. पुनर्जीव ब्रह्मवादेन प्रकृति कारणवादमाशंक्य निराकरोति । बृहदारण्य के चतुर्थे षष्ठं च याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवादे "येनाहं नामृता स्मां