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शास्त्र में उल्लेख नहीं है । वह तो मूल प्रकृति विकृति महद आदि भेदों से सात प्रकार की बतलाई गई हैं । जिस सोलह विकारों की चर्चा है वह न प्रकृति हैं न विकृति हैं, वह तो पुरुष से भिन्न ही ज्ञात होते हैं जिससे पुरुष की विलक्षणता निश्चित होती है । जैसा कि - सांख्य वादियों का मत है, वह श्रुति सम्मत नहीं प्रतीत होता क्यों कि श्रुति में प्रकाश का विशेषोल्लेख है और आत्मा को उसका नित्य अधिकरण बतलाया गया है । इसलिए इस मंत्र से भी सांख्य मत की पुष्टि नहीं होती ।
प्राणादयो वाक्य शेषात् ॥ १|४|१२ ॥
नन्ववश्यं मंत्रस्यार्थोवक्तव्यः । तदनुरोधेन लक्षरण यापि ज्योतिः शास्त्रवत् पंच पंचशब्दः पंचविशति वाचकतया परिकल्प्यः । स्पष्ट माहात्म्यार्थमात्माकाशयोराधारा । धेयभावः प्रदाशितस्तत्रत्ययोरेव । श्रतो मंत्रे तन्म तासिद्धिराशंक्य परिहरति । प्राणादयः पंचजनाः, वाक्यशेषस्य नियामकत्वात् “प्राणस्य प्राणमुत चक्षुषश्चक्षुः श्रोत्रस्य श्रोण मन्नस्यान्नं मनसो " इति ।
मंत्र के अर्थ पर विचार करना आवश्यक है, सांख्य मत की दृष्टि से, लक्षण करने पर, पंच पंचशब्द का तात्पर्य ज्योतिष शास्त्र की तरह गुरिणत करने से, पंच्चीस वाचक होगा । माहात्म्य को स्पष्ट करने के लिए आत्मा और आकाश का श्राधार श्रधेय भाव उस स्थान पर दिललाया गया है: इसलिए उक्त मंत्र में सांख्य मत ही है, ऐसी श्राशंका करते हुए परिहार करते हैं, कि उक्त वाक्य के अंतिम भाग में, नियामक रूप प्राण आदि पांच का वर्णन किया गया है-जैसे कि - " वह प्राण, नेत्रों का नेत्र, श्रोत्र, अन्न का अन्न और मन का मन है ।" इत्यादि ।
ननुकथमस्य वाक्य शेषत्वम् उच्यते-- प्राणादर्यः संज्ञा शब्दाः करण वाचकाः । ते ज्ञान रूपं वा, क्रिया रूपं वा कार्यं जनयंति स्वव्यापारेण । तेन तेषां करणान्तरापेक्षा भावात् प्रारणादीनां पुनः प्रारणादिमत्त्वं वाधितं स्यात् । भगवतो माहात्म्य विरोधश्च । श्रतः स्वार्थ निर्वाहार्थं श्रन्यार्थी वर्त्तते पंचजन वाक्य स्यघ । अतो बुद्धेः पंचवृत्तीजनयतीति प्राणादयः पंचजनः । “संशयोऽथ विपर्या सोनिश्चयः स्मृतिरेव च स्वाप इत्युच्यते बुद्धे लक्षणं वृत्तितः पृथक्" इति । तेषां तत्तत्प्रकारकं स्वकार्यजननं न स्वतः किन्तु