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हैं । ब्रह्म की, सर्व शब्दवाच्यता प्रसिद्ध है जैसे कि-"को श्रद्धावेद" क इह प्रावोचत् "सर्वेवेदा यद् पदमामनंति" यतो वाचो निवर्त्तन्ते “मन सैवानु दृष्टव्यः" इत्यादि विरुद्धतायें परमात्मा में ही कही गई हैं । ऐसी ही अनेक शब्द वाच्यतायें उनके लिए प्रसिद्ध हैं, । समाकर्षण के सिद्धान्त से ही हल होती हैं।
"तं यथा यथोपासते यथा भवति" इति फल ज्ञापनार्थ प्रसन्न एव स भवति" इति । यथा कंसादीनां मारकः । तद् हैक पाहुः सर्व प्रपंच वैलक्षणण्यम्" प्रपंव रूपोऽपि स इति प्रथम पक्षः। मव्याकृतमसत् पक्षण तुल्यम् । 'ना सादसीत्" इति मनस्तदपि ब्रह्म । "तम पासीत्" इत्यनभिव्यक्तम् । कर्मणोऽपि भगवत्वात् । पूर्व काण्डेऽपि तस्मादेव सृष्टिः । नहि समस्तः स्वेन गूढत्वं लोके संभवति । अतः क्वचिद् विलक्षणात् क्वचिद विलक्षणात् ब्रह्मणों जगत् । भगवत्वादेव स्वयं कत्त कता च । संभवति चैक वाक्यत्वे अज्ञानान्निराकरणं चायुक्तम् । तस्माच्छब्द वैलक्षण्येन श्रुतिविप्रतिषेथो वक्तुं न शक्य इति सिद्धम् । ___ "तं यथा यथोपासते" आदि फल को बतलाने के लिए ही "प्रसन्न एव स भवति" कहा गया है । जैसे कि कंस आदि का उद्धार । “तद् हैक पाहुः" इत्यादि से समस्त प्रपंच का वैलक्षण्य बतलाया गया है । वह प्रपंच रूप भी है, ऐसा प्रथम पक्ष दिखलाया गया है । अब्याकृत का तात्पर्य असत् पक्ष के समान है। "नासदासीत्" से मन को ब्रह्म स्वरूप कहा गया है । "तम आसीत्" में उसके अव्यक्त रूप का निर्देश किया गया है। कर्म को भी भगवत् रूप कहते हैं पूर्व काण्ड में भी कर्म से ही ऐसो सृष्टि बतलाई गई है । लोक में वह समस्त को अपने में छिपा नहीं सकते, इसलिए कहीं जगत को ब्रह्म से, विलक्षण और कहीं अविलक्षण कहा गया है । इस जगत की कत कता भी स्वयं ब्रह्म से ही है । इसलिए इन सब की ऐकवाक्यता संभव है, अज्ञान से इनका निराकरण नहीं हो सकता शब्द की विलक्षण से, श्रुतियों के विरोध की बात कहना ठीक नहीं है। ६ जगद् वाचित्वाधिकरण:जगद् वाचित्वात् ।।४।१६॥ ___एवं शब्द विप्रतिषेधं परिहृत्य अर्थ विप्रतिषेयं परिहरति कौषीतकि ब्राह्मणे बालाक्य जातशत्रु संवादे बालाकिर जातशत्रवे ब्रह्मोप देष्टामगतः ।