________________
२२१
समाकर्षाधिकरण :समाकर्षात् ।१।४।१५॥
पुनरन्यथाशंक्य परिहरति । ननु क्वचिद् "प्रसद् वा इदमन पासीत्" इति, क्वचित् “सदेव सौम्येदमन पासीत्" "तद् हैक पाहुरस देवेदमन पासीत्" अव्याकृतमासीत् "नासदासीनो-सदासीत् तम आसीत्" इत्यादि वाक्येषु ब्रह्मक्षोऽपि विगानं श्रयते "तद् हैक पाहुः" इतिवत् पक्षान्तरं संभवति । नहि असत्तर्भः शब्दोब्रह्म प्रति पादयितुं शक्यते । "प्रसन्नेव स भवति" इति बाधात् । “मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्" इति च । तस्मात् कारणत्वेनापि श्रुति विप्रतिषेधात् ब्रह्म कारणं न ।
दूसरे प्रकार से शंका करते हुए परिहार करते हैं। कहते हैं कि--किसी जगह “सृष्टि के प्रथम यह सब कुछ असद् था" कहीं--"सौम्य ! यह सब कुछ सृष्ठि के पूर्व सद् ही था"--वह एक ही है यह सब कुछ असद् ही था" -अव्याकृति ही था "न असत् था न सत् था, तम ही था" इत्यादि परस्पर विरुद्ध वाक्यों में ब्रह्म की भी विरुद्धता कही गई है । "तद् हैक पाहुः' की तरह कोई एक पक्ष हो सकता है, सभी पक्ष संभव नहीं हैं । तथा असत् और तम आदि शब्दों से ब्रह्म का प्रतिपादन नहीं कर सकते । क्यों कि-"वह असत् नहीं हो सकता "वह तम से परे आदित्यवर्ण है" इत्यादि वाक्य एक दम विपरीत ही लक्षण बतलाते हैं । इस प्रकार कारण के संबंध में भी श्रुतियों में विरुद्धता है, इसलिए ब्रह्म कारण नहीं हो कसता ।
इत्येवं प्राप्ते उच्यते. समाकर्षात् । प्राकृष्यते स्वस्थानात् च्यावत इत्याकर्षः । सर्वेष्वेतेषु वाक्येषु असदादिपदानां न निरात्मकत्वाद्यर्था उच्यन्ते, किन्तु वलक्षण्येन । सर्व शब्द वाच्यत्वं च सिद्धं ब्रह्मणः यथा--"को श्रद्धा वेद" -क इह प्रावोचत् “सर्वे वेदा यत्पदमामनंति"--यतो वाचो निवर्तन्ते-- "मनसैवानुद्रष्टव्यः' इत्यादि सर्वे विरुद्ध धर्मा भगवत्युच्यन्ते। एवमनेक विरुद्ध शब्द वाच्यत्वं लोक प्रसिद्ध तादृशार्थात् समाकर्षा देव गभ्यते । ___ उक्त संशय पर “समाकर्षात्" सूत्र प्रस्तुत करते हैं । अर्थात् जो अपने स्थान से ही प्राकृष्ट करते हैं । इन सब वाक्यों में जो असद् प्रादि पद हैं वे, निरात्मकता अदि अर्थों का द्योतन नहीं करते अपितु विलक्षणता बतलाते