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आदित्यादि दक्षिणेक्षि पुरुषपर्यन्तं परिच्छिन्न ब्रह्मोपासनान्युक्तबा तथा निराकृते तमेव ज्ञानार्थमुपससाद । ततः सुप्तपुरुष सभी पमुभावागत्य ब्रह्म वाद्य ं चक्रतुः । तत्र - “क्वैष एतद् बाला के पुरुषऽशयिष्ट'' इत्यादी जीव: प्रकान्तः । तस्मादेव सर्वोत्पत्तिरुक्ता ब्रह्मणोऽप्यनु प्रवेशश्च । तत्र संदेहः जीव एव ब्रह्म सहितः कर्त्ता, ब्रह्मव वा ? तत्र जीव एव कर्त्ता । सर्वस्य, जगतो ब्रह्मत्वादयस्तस्य धर्माः, राजत्ववद् यज मानत्ववद् वा । अस्मिन् प्रकरणे ब्रह्मोपक्रमेण जीव पर्यवसानोक्तः सर्व व ब्रह्मत्वे नोक्तो जीव एव कर्त्ता । तथा सति लोकेऽपि जीवकर्तृत्वं सहजं भवेत्, बंधमोक्षव्यवस्था च एवं सत्यर्थात् प्रकृतेरेव फलिष्यति ।
शब्द विप्रतिषेध का रिहार करके अब अर्थ विप्रतिषेध का परिहार करते हैं । कौषीतकि ब्राह्मण के बालाकि मोर अजातशत्रु के संवाद में, बालाकि अजातशत्रु को ब्रह्मोपदेश देने श्राया है, उसने श्रादित्यादि से दक्षिण नेत्र पर्यन्त परिच्छिन्न ब्रह्मोपासना का उपदेश देकर उसका निराकरण करते हुए उसे ही ज्ञानार्थं रूप से समझाया । वे दोनों सुप्तपुरुष के निकट जाकर ब्रह्म तत्त्व पर विचार करने लगे । उसमें उन्होंने "क्वैष एतद् बालाके !" इत्यादि से जीव संबंधी चर्चा की तथा उसी से समस्त के अनुप्रवेश की बात भी की। इस पर संदेह होता है कि सहित कर्त्ता है अथवा केवल ब्रह्म ही कर्त्ता है ? विश्वारने पर ही कर्त्ता प्रतीत होता है, सारा जगत् ब्रह्मात्मक है, वे सभी जागतिक धर्म उस जीव के ही हैं, जैसे कि--राजा का समस्त राज्य पर अधिकार होता है तथा यजमान का यज्ञ के फल का अधिकार होता है । यह प्रकरण ब्रह्म के वर्णन से प्रारंभ होकर, जीव के वर्णन से समाप्त होता है । पूरे प्रकरण
सृष्टि बतलाकर ब्रह्म
जीव ही ब्रह्म
तो वहाँ जीव
में ब्रह्मत्व रूप से जीव को ही कर्त्ता कहा गया है । वैसा मानने से लोक में भी जीव के कर्त्तत्व में सहज हो जाता है । तथा बंध मोक्ष की व्यवस्था भी बन जाती है । इस प्रकार अर्थ के आधार पर प्रकृति की महत्ता ही सिद्ध होती है ।
इत्येवं प्राप्त उच्यते, जगद् वाचित्वात् । " एतेषां पुरुषाणां कर्त्ता यस्य चैतत् कर्मेति” उपक्रमेण एतच्छब्देन जगदुच्यते पुरुष शब्देन च जीवः । तज्जडजीवात्माकं जगत् ब्रह्म कतृ कामिति हि पूर्वं सिद्धम् । तदनुरोवेनात्रापि ब्रह्म परत्वमेवोचितं, नतु सर्वं विप्लवोऽश्रुत कल्पना च । श्रतः सुषुप्तवापि