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२ चमसाधिकरण :चमसवदविशेषात् ।।४॥
पुनः श्रुत्यन्तरेण प्रत्यवस्थितं निराकन्त मधिकरणान्तरमारभते । ननु प्रकरणवशात् पूर्व मस्मदुक्तोऽर्थोऽन्यथावर्णितः । यत्र प्रकरणापेक्षेव नास्ति मंत्रे तदस्माकं मूलम् । “अजामेकां लोहितशुक्ल कृष्णां बह्नवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः, अजोह्य को जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः "इति । यद्यपीदं श्वेताश्वतरोपनिषदि चतुर्थाध्याये विद्यमानत्वात् पूर्वापर संबंधमेव वक्तव्यम् । तत्र ब्रह्मवादिनों वदंतीत्युपक्रम्य ब्रह्मविद्य व निरू पिता । तथापि पूर्वकाण्डे प्रणवादि मंत्राणां नायं नियम इति प्रकृतेऽपि मतान्तर वाचकस्यैव प्रकृतोपयोग इति शंका । ते ध्यान योगानुगताप्रपश्यन् देवात्मशक्ति स्वगुणं निगूढामिति च । तथा 'ज्ञाज्ञों द्वावजावीशानीशावजा ह्य का भोक्त भोग्यार्थ मुक्ता, अग्रे च यो योनि अधितिष्ठत्येकों विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः "ऋषि प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानवित्ति जाय मात्रं च पश्येत्" इत्यादि च वाक्यानि कपिल तन्मतवाचकानि, वतन्त इति सांख्य मतमपि वैदिकम् ।
पुनः दूसरी श्रुति से, उपस्थित सांख्यमत का निराकरण करने से लिए अधिकरण प्रारंभ करते हैं प्रकरण के माधार पर पहिले हमारे अर्थ को अन्यथा कहते रहे; जहाँ प्रकरण की अपेक्षा ही नहीं है वहाँ तो मंत्र में, हमारा ही मूल रूप से अर्थ विद्यमान है उसे तो मानोगे ही, वे मंत्र ये हैं"एक रक्त, शुक्ल, कृष्णा वर्ण वाली अजा, बहुत सी प्रजाओं को विभिन्न वों से सृजन करती है, और एक अज, इससे संसक्त होकर सोता हुआ इस भुक्त भोगा अजा का त्याग कर देता है।" यद्यपि यह मंत्र श्वेताश्वतरोपनिषद् के चतुर्थ अध्याय में हैं पूर्वापर संबंध के आधार पर ही इसका तात्पर्य कहना होगा । उस जगह ब्रह्मवादी कहते हैं, ऐसा उपक्रम करके ब्रह्म विद्या का ही निरूपण किया गया है। फिर भी पूर्वकाण्ड में-प्रणव आदि मंत्रों का ऐसा नियम नहीं है कि उनका जिस अर्थ में प्रयोग हुमा है. अन्यत्र उनका उसी अर्थ में प्रयोग हो । वे मंत्र ध्यानयोगानुगत भाव से देखे जाते हैं उनमें उस स्थल में देवात्म शक्ति अपने गुणों सहित छिपी रहती है। इसी प्रकार यहाँ भी कह सकते हैं कि उक्त मंत्र ब्रह्मविद्या वादी ही हो ऐसा