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शंका परिहरति तु शब्दः । अजा शब्देन ज्योतिरेवोच्यते । यथा राजा अल्पदोग्ध्री तथेयं नश्वर सुखदात्री, अग्नि सूर्य सोमविद्यत रूपा ब्रह्मणो ई सोक्त चरण रूपा । भगवत् कार्याश रूपत्वात् । “तासां त्रिवृतं त्रिवृतमेकैकां करवाणि" इति श्रुतेश्च प्रथमोत्पन्ना देवता अजा शब्देनोच्यते । तत्र हेतुः उपक्रमात्, अत्रैवोपक्रमे, “तदेवाग्निस्तद्वायुस्तदादित्यस्तदु चन्द्रमा" इति । "द्वासुपर्णा" इति चाग्रे। मध्ये चायं मंत्रः पूर्वोत्तर संबंधमेव वदति । सा मुख्या सृष्टिः। अजद्दयं जीव ब्रह्म रूपमिति । अत्र प्रकरणे न स्पष्ट इति निरूपयति । तथाहि श्रुत्यन्तरे स्पष्ट मेव अधीयत एकै : “यदग्ने रोहितं रूपं तेजसस्तद् रूपं यच्छुक्लं तदपां यत् कृष्णंत दन्नस्येति' एवमग्रेऽपि कलात्रये । “अनेन जीवेनात्मनेति जीव ब्रह्मणोश्चानु प्रवेशः । बीजेऽपि त्रैविध्यामिति सरूपत्वम् । भगवतोऽभोगे हेतुः, जीवे न भुक्तभोणमिति । तस्मात् प्रकृतेऽपि चमसवच्छ्रुतावेवार्थकथनान्न सांख्यमत प्रतिपादकत्वम् ।
(वाद) चमस मंत्र में अर्वाग्विल इत्यादि का ब्याख्यान है। शिर चमस है, प्राण यश है, अथवा प्राण ऋषि हैं । इत्यादि ।
(विवाद) यहाँ इस प्रकार का व्याख्यान नहीं है. ऐसा सूत्रस्थ तु शब्द परिहार कर रहा है । प्रजा शब्द ज्योतिवाचक है । जैसे कि-अजा प्रति बकरी थोड़ा दूध देने वाली होती है, वैसे ही यह नम्वर सुख देने वाली है । अग्नि सूर्य सोम और विद्य त रूप यह ब्रह्म के हंस के चरण रूप से कही गई है। क्यों कि-यह भगवान् की कार्याश रूपा है। उनमें हरेक को तीन-तीन रूप वाला करूँ" इस श्रुति के अनुसार सर्व प्रथम उत्पन्न देवता अजा नाम वाली कही गई। उक्त प्रसंग के उपक्रम में-"वही अग्नि, वही वायु. वही सूर्य और वही चन्द्रमा है" ऐसा कहा गया । आगे "द्वासुपर्णा" आदि मंत्र है। मध्य में, ये "अजामेका" इत्यादि मंत्र पूर्वोत्तर संबंध का ही बोध करता है। पहली ऋचा मुख्य सृष्टि का वर्णन कर रही है। "द्वासुप' ऋचा दो अज जीव और ब्रह्म को बतला रहा है। इस प्रकरण में स्पष्ट रूप से निरूपण नहीं किया गया है किन्तु एक दूसरी श्रति में स्पष्ट उल्लेख है-"अग्नि का जो रक्त रूप है वह तेज का है, जो शुक्ल रूप है वह जल का है तथा जो कृष्ण रूप है वह पृथिवी का है" ऐसे ही प्रागे भी तीनों कलाओं का क्रमशः वर्णन किया गया है। "अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य" इत्यादि से जीव ब्रह्म के अनुप्रवेश की चर्चा की गई