________________
२०६
ज्ञयत्वावचनाच्च | १|४|४|
पूर्वापर संबंर्धनार्थः प्रतिपादितः । केवलैतद् वाक्य विचारेऽपि न तद भीष्टं प्रकृतिरूपमव्यक्तं सिध्यतीत्याह--प्रत्र हि वाक्ये श्रव्यक्तं ज्ञ ेयत्वेन नक्तं तेषां तु प्रकृति पुरुषान्तरं ज्ञातव्यम् । नहि सिद्धवन्मात्र निर्देशे तेषां मते पुरुषार्थः सिध्यति । अपुरुषार्थ साधनत्वे वा असंबद्धार्थ वाक्यत्वमेव स्यात् । परत्व वचनं चा संगतम् । श्लिष्टत्वाद् उभयेोरिति चकारार्थः । श्रयं हेतुः पूर्वमुक्तोऽध्यवसरे स्मारितः । तस्मादव्यक्तं न प्रकृतिः ।
पूर्वापर संबंध से वाक्यार्थ का प्रतिपादन किया गया । केवल इस वाक्य के विचार में भी, सांख्य सम्मत, प्रकृति रूप श्रव्यक्त की सिद्धि नहीं हो सकती । इसमें अव्यक्त को ज्ञ ेय नहीं कहा गया है सांख्यवादियों की प्रकृति तो पुरुष के अतिरिक्त ज्ञेय है अर्थात् उनके मत से प्रकृति और पुरुष दोनों ज्ञय हैं । केवल उनके शब्दों से मिलते जुलते शब्दों के आधार पर तो, इस वाक्य से उनके पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि इस वाक्व को पुरुषार्थ साधक न मानें तो यह असंबद्ध वाक्य हो जायेगा, जिसका कोई अर्थ न होगा । तथा परत्व की बात भी असंगत हो जायेगी । इसको हम पूर्व प्रसंग में भी कह चुके हैं । इसलिए अव्यक्त प्रकृति नहीं है ।
बदतीति चेन्न प्राज्ञो हि प्रकरणात् | १|४|५ ॥
ननु ज्ञयत्वावचनमसिद्धं, पूर्व
निर्देशमात्रमुक्तवाज्ञयत्व वचनात् ! “प्रशब्दमपस्पर्शम रूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् अनाद्यनन्तं महतः परं ध ुवं निचाय्य तं मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ।" इत्युत्तर वाक्ये वदतीति चेन्न । प्रकररणस्य नियामकत्वेनैक वाक्यत्वे द्वयो: सर्वेक वाक्यत्वेः प्राज्ञः परमात्मैव निचाय्यः । नतु द्वयोरेक वाक्यत्वं वक्तुं शक्यम् तस्मात् प्रकरणस्य नियामकत्वे श्रशब्दवाक्यमपि भगवत् परमेव ।
(वाद ) श्राप की ज्ञ ेयत्व प्रसंग में पहिले निर्देश मात्र रहित, स्पर्शहीन, रूप हीन रहित परं ध्रुव महत् को इत्यादि ।
वचन के अभाव वाली बात नहीं जमती, उक्त करके श्रागे स्वकृतः ज्ञेयत्व की चर्चा है " शब्द और अव्यय, अरस, नित्य श्रगंध, आदि अंत जान कर मृत्यु मुख से छूट जाते हैं ।"