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प्रथम अध्याय चतुर्थ पाद १ अधिकरण :--- आनुमानिकमप्येकेषामिति चेन्न शरीररूपकविन्यस्त गृहीते दर्शयति
च ।१।४।१॥
एवं सर्वेषां वेदांतानां ब्रह्मपरत्वे निर्णीते, केचिद् वेदार्थाऽज्ञा--- नात् क्वचिद् वेदभागे कापिल मतानुसारि पदार्थदर्शनेन तस्यापि वेद मूलकत्वं वदेति । तन्निराकरणाय चतुर्थः पाद प्रारभ्यते । तत्र ईक्षतेनी शब्दमिति सांख्य मतम शब्दत्वादिति निवारितम् । वेदेन प्रतिपादित मिति तत्राशंकते, आनुमानिकमप्येकेषाम् । एकेषांशाखिनां गावासू मांख्यपरिक ल्पितम प्रकृत्यादि श्र यते
"इन्द्रियेभ्यः पर ह्यापर्थेभ्यश्च परं मनाः । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धरात्मा महान् परः ।।
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः । पुरुषान्न परं किंचिद् सा काष्ठा सा परागतिः ।। "इति काठके श्रूयने । तत्र बुद्धरात्मा अहंकारः । ततो महान् महत्तत्वम्, ततोऽव्यक्त प्रकृतिः, ततः पुरुष इति । न ह्यकारादयः पदार्थः ब्रह्म वादे संभवंति । तस्मादेवंजातीय केषु तन्मत पदार्थानां श्रवगान्माया प्रकृत्यविद्यावादा अपि श्रौता इति चेत् ।
पिछले पादों में समस्त वेदांत वाक्यों की ब्रह्म परकता निश्चित की गई। कुछ लोग वैदिक अर्थो को न समझ कर, वेद के किसी भाग में कपिल मतानुसारी पदार्थों को देखकर, कापिल मत को भी वेद सम्मत कहते हैं । उसी का निराकरण इस चतुर्थ पाद में प्रारंभ कहते हैं । “ईक्षते शब्दम्" सूत्र से ईक्षण शब्द न होने के कारण सांख्य मत का पहिले निराकरण किया जा चुका है । अव अन्य वर्णनों के आधार पर उक्त मत को वैदिक मानने का संशय किया जाता है। एक वैदिक शाखा में, सांख्य परिकल्पित प्रकृति आदि का वर्णन है ऐसा उन लोगों का कथन हैं-- जैसे कि-- 'इन्द्रियों