________________
तस्यानुभवारूढत्वाय पुनः प्रश्नः “दर्शनादर्शनावापोदवापाभ्यां सिद्ध प्रसंगो ह्ययं पुरुषः ?" इति । एवं जीवं सुषुप्ती भगवन्तं च ज्ञात्वा मोक्षो पायं पृच्छति । तत्र याज्ञवल्क्यस्य भयं जातं, सुबुद्धिरयं निर्बन्धेनापि सर्व ज्ञास्यतीति जीवब्रह्मधर्मानेकीकृत्य जीवोपक्रमेण ब्रह्मोपसंहारेणाह तत्र-“स यत्रेति" वस्य मूर्योपतापावस्था। "तद्यथा अन" इति मरणा वस्था। तत्र भगवानेवैनं लोकान्तरेनयति । तद् यथा राजानमिति" भगवत्सन्मानम् "एवं विद" इति वचनात् जीवस्तु नैवंवित् । सिद्धवद् वचनान्न ज्ञानाविधिः, वाक्यभेद प्रसंगाच्च ‘स यत्र" इति जीवे मोहोऽधिकः । "अथैन मेते प्राणाः" इति भगवच्चरित्रं, संपद्यत इत्यन्तेन । श्लोके तद् ब्रह्म अस्यजीवस्य अकामयमानस्य भगवतः स्वरूपं पूर्वमेवोक्तमनुवदति ।
उक्त रहस्य अनुभवारूढ़ हो सके इसलिए "दर्शनादर्शना ?" इत्यादि पुनः प्रश्न किया गया है । इसमें सुषप्तावस्था में जीव, भगवान को जानकर कैसे मोक्ष पा सकता है यही पूछा गया है। इस पर याज्ञवल्क्य के भय का दिग्दर्शन कराते हुए उत्तर दिया गया कि-सुबुद्धि अर्जन कर ही सब कुछ जाना जा सकता है, इस प्रसंग में उपक्रम और उपसंहार में जीव और ब्रह्म का स्वरूप वर्णन करते हुए, जीव और ब्रह्म के धर्मों को समान रूप से बतलाया गया है । “स यत्रेति" इत्यादि से जीव की मूर्छावस्था एवं "तद् यथा अन', इत्यादि से मरणावस्था का वर्णन किया गया है । भगवान ही जीव को लोकान्तर पहुँचाते हैं । “तद् यथा राजानम्" इत्यादि से भगवान का माहात्म्य वर्णन किया गया है। "एवं विदं" इत्यादि से भगवान् की उक्त विशेषता कह कर "नैवं विद्" से जीव की अनभिज्ञता कही गई हैं । अर्थात् जीव संसारी है उसे राजोचित-महत्व नहीं दिया जा सकता. परमात्मा को जो राजा की उपमा दी गई वह तो पापियों के शासक होने के नाते दी गई । यदि कहें कि प्राज्ञ जीव के लिए ही यह सन्मान सूचक शब्द प्रयोग किया गया है, सो बात नहीं है यह सम्मान सूचक शब्द सिद्ध सा वचन है, जी की प्राज्ञता के लिए नहीं है । फिर दोनों के भिन्नभिन्न वाक्य भी हैं" । "नयत्र" इत्यादि से जीव के मोहाधिक्य का विश्लेषण किया गया है “अथैननमेते प्राणः से "संपद्यते" तक भगवच्चरित्र कहा गया है श्लोक में इस निष्काम योगी जीव की भगवत्स्वरूपता कही गई जो कि पूर्वमत का पुनर्कथन मात्र है।