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मात्मा से बिलकुल भेद रहता है यह दिखलाया गया है जागरित अवस्था में असंगता को समझने के लिए पुनः प्रश्न किया गया है तथा वहाँ अवस्था भेद को बतलाने के लिए और किया ज्ञान की प्रधानता दिखलाने के लिए मत्स्य का दृष्टान्त दिया गया है।
श्येन सुपर्ण दृष्टान्तस्तु सुषुप्तौ भगवत्स्वरूप प्राप्तयेऽवस्थान्तः । यत्रेति च भगवान । पंचवर्ण नाडीकृत एवास्य क्लेशो, भगवत्कृत एवानंद इति स्वप्नानन्दो भगवद्पः परमो लोकः । सुषुप्तिस्त्वकामरूपो भगवान् । अत्र ज्ञानाभावादुभयोः स्पष्टतया भेद निर्देशः । शारीर. प्राज्ञ इति । नाड्याच्छादनाभावोऽतिछन्दः । तत्र भगवत्स्वरूपं गतस्य वाह्य न्द्रिय धर्माभावमाह । विजानीयादित्यन्तेन वाह्य न्द्रियारणांसलिलत्वमिति पूर्वी पपत्तिः । एष ब्रह्मलोक" इत्यारभ्य 'अनुशशासैतदमृतम्" इत्यन्तेन आनंदरूपो भगवान् प्रतिपादितः फलत्वाय । एतावता उभयासंगः प्रतिपादितः ।
वाज और पक्षी का जो दृष्टान्त दिया गया है, वह सुषुप्ति अवस्था में भगवत् स्वरूप प्राप्ति को बतलाता है । “यत्रेति च" इत्यादि से भगवान का वर्णन किया गया है। जीव को जो क्लेशानुभूति होती है वह पांच नाडियों के दवाब से होती है, आनंद भगवत्कृत होता है स्वप्न में प्रानंद, भगवद् रूप ही होता है. वही परमलोक जन्य अानंद का प्रतिभास है । सुषुप्ति में निष्काम स्वरूप भगवान का साहचर्य प्राप्त होता है। इस अवस्था में जीव को ज्ञान नहीं रहता इसलिए दोनों का स्पष्ट भेद बतलाया गया है । शारीर को प्राज्ञ जीव कहा गया है। नाडियों को आच्छादन करने के कारण भगवान् को अतिच्छन्द कहा गया है । इस स्थिति में, जीव, भगवत् स्वरूप को प्राप्त करने के कारण, वाह्य न्द्रियों के विषयों से अनासक्त रहता है "विजानीयात्" इस अंतिम पद से वाह्य न्द्रियों की सलिलत्व प्राप्ति बतलाई गई हैं। भगवान् ही शुद्ध सलिल स्वरूप हैं, अर्थात् शुद्ध स्वच्छ जलाशय के समान हैं जिसमें समस्त वाह्य न्द्रियाँ निमग्न हो जाती हैं । “एष ब्रह्मलोक" से प्रारंभ कर "अनुशशासैतदमृतम्" इस वाक्य' तक, फलस्वरूप, प्रानंदमय भगवान् का प्रतिपादन किया गया है । यहाँ तक दोनों का प्रसंग बतलाया गया है।