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नुकरणमाह--"ध्यायतीव लेलायतीव" इति । बुद्धिसहितः स्वयमेव स्वप्नो भूत्वा जागरणानुसंधानं न करोति । एवं जाग्रत्स्वाप्नो ब्रह्मणो लोकद्वयम् जीवस्य स्थानत्रयमाह ।" स वा अयमितिकंडिकाद्वयेन, स इति पूर्व प्रक्रान्तो जीवः । जीवस्य शरीरेन्द्रियाणां दुःखदातृत्वमेव । अथेति भगवच्चरित्रम् । सतु स्वस्यानंदं जीवस्य दुःखं च पश्यति ।
भगवान अबतार दशा में, जीव की तरह, अन्तःकरण और इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करते हैं--यही बात "ध्यायतीवलेलायतीव" आदि में कही गई है। वह परमात्मा स्वप्नावन्था में भी स्वयं ही बुद्धिपूर्वक स्वप्न होकर क्रीडा करते हैं, जागरण की बात भी उनकी जीव के समान ही होती है । जाग्रत और सुषुप्ति दो अवस्थायें ब्रह्म की जीव के समान तथा स्वप्न सहित तीन अवस्था जीव को बतलाई गई। “स वा अयम्" इत्यादि दो ऋचाओं से दोनों के स्वरूपों का विवेचन किया गया। 'स' से उस पूर्व प्रश्नानुसार जीव का उल्लेख है। जीव की, शरीर इन्द्रिय आदि से दुःख प्राप्ति कही गई । “अथ" से भगवच्चरित्र का विवेचन किया गया है वह अपने प्रानंद और जीव के दुःखों को देखता है।
भेदोऽथ शब्दात् । जीवस्यानीशित्वात, येन प्रकारेण्यं जीवः परलोके गच्छति, तमुपाय भगवानेव करोति । अयो खल्विति भगवतो न जागरित स्वप्न भेदोऽस्तीति पक्षः। परंस्वयंज्योतिष्टत्व तत्र स्पष्टम् । एतावद दुरे भगवच्चरित्रमंगीकृत्य जीव विमोक्षार्थ प्रश्नः । “स वा एज" इति जीव वाक्यम् । तस्य सहजः संगो नास्तीति स्वप्न संगाभावं प्रत्यक्षतः प्रदर्शयन्न संगत्वमाह तावतापि जागरणावस्थायामसंग त्वज्ञानाय पुनः प्रश्नः । तत्र मत्स्य दृष्टांतोऽवस्थाभेद ज्ञानार क्रियाज्ञान प्रधानः ।
अथ शब्द से भेद दिखलाना प्रारंभ किया गया है। परतंत्र होने से जीव जिस प्रकार परलोक जाता है, उसका उपाय भगवान ही करते हैं। भगवान में जागरित और स्वान का भेद नहीं रहता “अथ खलु" प्रादि से यही बतलाया गया है। परं स्वयं ज्योतित्व की बात भी स्पष्ट की गई है । यहाँ तक भगवान् के चरित्र का विचार करते हुए, जीव के मोक्ष के लिए प्रश्न किया गया है ।" स वा एज इत्यादि जीव संबंधी वाक्य हैं । उसका और परमात्मा का सहज साथ नहीं है. स्वप्प में उस से पर