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विचारः, श्रर्थापत्ति सूचकस्त्वयमेव न्याय इति । तस्माद् यत्र वातद्धर्मकथनमन्यवाच्यस्य तत्र ैव ब्रह्मपरत्वमिति सिद्धम् ।
उक्त मत पर कहते हैं कि-- प्राकाश परमात्मवाची ही है, यह शब्द केवल भूताकाशवाची ही नहीं है अन्य प्रर्थों का भी बोधक है । भूताकाश का जो श्रुतिसिद्ध प्रयोजन है, वही, इसका दूसरे ग्रथों में प्रयोग होने पर भी होता है । उक्त प्रसंग में उसका जो निर्वाहक धर्म है वह रत्कृष्ट धर्म के रूप में बतलाया गया है अतः वह उसका वाची न होकर ब्रह्म परक है । नामरूप निर्वाह ऐसा विशेषोल्लेख आकाश के माहात्म्य का कारण नहीं हो सकता । वाक्य में " प्राकाशो वं" कहा गया है, यह वे पद निश्चयात्मक है जो कि निश्चित सिद्ध अर्थ का द्योतन करता है, कि उपासना परक प्रयोजन ताता है | निर्वाह, परमात्सा का विशिष्ट धर्म है जो कि अन्य श्रुतियों में प्रसिद्ध है । इन विशेष वर्णनों से ये निर्वाहकत्व प्रादि विशेषतायें श्राकाश संबंधी नहीं हो सकतीं इसलिये उन्हे ब्रह्मपरक ही मानना समीचीन हैं ।
सुषुप्त्युत्क्रान्त्योर्भेदेन ||३|४|२||
बृहदारण्यके ज्योतिर्ब्राह्मणे, : याज्ञवल्क्य किं ज्योतिरयं पुरुष ' इत्यारभ्य" श्रभयं ह वै ब्रह्म भवति य एवं वेदेत्यन्ते संदेह: किं ब्रह्मवाक्यमेतद् उत जीवस्य ? इति ।
वृहदारण्यक के ज्योति ब्राह्मरण में " याज्ञवल्क्य किं ज्योतिमेपुरुषः " प्रारंभ करके "अभयं हवं ब्रह्म भवति य एवं वेदेति" तक जो प्रकरण कह गया है वह ब्रह्मपरक है या जीव परक ? ऐसा संदेह होता है ।
जीवस्य ब्रह्मत्व प्रतिपादने जीव वाक्यत्वम् । स्वातंत्र्येण ब्रह्मरण एव ज्ञानकर्मत्वे ब्रह्म वाक्यत्वमिति । यद्ययर्थज्ञाने न संदेहस्तथापि नियमकंसेतुमाह, भेदेन इति । तस्यायमर्थः, "कि ज्योतिरयं जीव ?" इति प्रश्ने सूर्यचन्द्रा निवाङ निराकरणानन्तरं आत्म ज्योतिः । आत्मा भगवानेवास्य ज्योतिरित्युत्तरानंतर. कतम श्रात्मा ? इति प्रश्ने " योऽयं विज्ञानमयो ज्ञानरूप इन्द्रियेषु हृदि च प्रकाशमानः" इत्युत्तरे जीवोऽथेतादृश इति तन्निराकर